2017/09/24

देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों के बीच महत्वपूर्ण अंतर


बहुत वर्षों से परमेश्वर का आत्मा खोजते हुए पृथ्वी पर कार्य करती आ ही है। सदियों से परमेश्वर ने अपने कार्य को करने के लिए बहुत सारे लोगों का उपयोग किया है। फिर भी, परमेश्वर की आत्मा के आराम के लिए अभी भी कोई उपयुक्त स्थान नहीं है। इसलिये परमेश्वर विभिन्न लोगों के माध्यम से अपना कार्य करता जाता है और वह अपने कार्य के लिए बहुत से लोगों का उपयोग करता है। अर्थात्, इन सभी वर्षों में, परमेश्वर का कार्य कभी नहीं रुका है। आज के दिन तक भी यह लगातार मनुष्य में आगे बढ़ता जा रहा है। यद्यपि परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है और बहुत कुछ किया है, फिर भी मनुष्य अभी तक परमेश्वर को नहीं जानता है, यह इसलिये कि परमेश्वर मनुष्य को कभी नहीं दिखाई दिया और वह निराकार है। इसलिए परमेश्वर को इस कार्य को पूरा करना है - व्यावहारिक परमेश्वर के व्यावहारिक महत्व को सभी मनुष्य को ज्ञात करवाना है। इस प्रयोजन के लिए, परमेश्वर को अपनी आत्मा को मूर्त रूप में लोगों को अवश्य दिखाना चाहिए और उनके बीच में कार्य करना चाहिए। जब परमेश्वर की आत्मा भौतिक रूप धारण कर लेती है, देह और हड्डियों को धारण कर लेती है, और लोगों के बीच चलते हुए दिखाई देती है, उनके जीवन में उनके साथ रहती है, कभी-कभी दिखाई देती है और कभी-कभी स्वयं को छुपा लेती है, तभी लोग उसे अधिक गहराई से समझने में सक्षम होते हैं। अगर परमेश्वर हमेशा देह में बना रहता, तो वह अपने कार्य को पूरी तरह से पूरा करने में कभी सक्षम नहीं होता। कुछ समय के लिए देह में कार्य करने के बाद, उस सेवकाई को करते हुए जो देह में की जानी चाहिए, परमेश्वर को अवश्य देह से प्रस्थान करना चाहिए और देह में आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्य करना चाहिए बिलकुल वैसे ही जैसे थोड़े समय के लिए सामान्य मानवता में कार्य करने और उस कार्य को पूरा करने जो उसे पूरा करने की आवश्यकता थी के बाद यीशु मसीह ने किया था। आप इसे मार्ग...(5) के माध्यम से याद रख सकते हैं: “मुझे याद है मेरे पिता ने मुझसे कहा था, ‘पृथ्वी पर, केवल मेरी इच्छा का पालन कर और मेरी आज्ञा को पूरा कर। अन्य कुछ भी तेरी चिंता का विषय नहीं है।’” इस गद्यांश में आप क्या देखते हैं? जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तो वह केवल ईश्वरत्व का कार्य करता है। यह देहधारी परमेश्वर के लिए दिव्य आत्मा की आज्ञा है। वह केवल हर जगह जाने और बाते करने, उसके वचन को अलग-अलग तरीकों से और अलग-अलग परिप्रेक्ष्यों से कहने के लिए आता है। मुख्य रूप से उसके लक्ष्यों और काम करने के सिद्धांत में मनुष्य को आपूर्ति करना और मनुष्य को पढ़ाना आते हैं। वह अपने आप को किसी के अंतर्वैयक्तिक संबंधों या लोगों के जीवन के विवरण जैसी बातों के विषय में चिंता में नहीं पड़ने देता है। आत्मा के लिए बोलना उसकी मुख्य सेवकाई है। जब परमेश्वर की आत्मा मूर्त रूप से देह में प्रकट होती है, वह केवल मनुष्य के जीवन का भरण पोषण करता है और सत्य को प्रदर्शित करता है। वह मनुष्य के मामलों में शामिल नहीं होता है, अर्थात्, वह मानवता के कार्य में भाग नहीं लेता है। मनुष्य ईश्वरीय कार्य नहीं कर सकते हैं, और परमेश्वर मनुष्य के कार्य में भाग नहीं लेता है। परमेश्वर के अब तक धरती पर कार्य करने के सभी वर्षों में, उसने हमेशा लोगों को अपने कार्य को करने के लिए उपयोग किया है। परन्तु इन लोगों को देहधारी परमेश्वर नहीं माना जा सकता हैं; वे केवल परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोग माने जा सकते हैं। परन्तु आज का परमेश्वर ईश्वरत्व के परिप्रेक्ष्य से सीधे बात कर सकता है, आत्मा की आवाज़ को आगे भेज सकता है, और आत्मा की ओर से कार्य कर सकता है। युगों से परमेश्वर ने जिन सभी लोगों का उपयोग किया है, उसी प्रकार परमेश्वर की आत्मा ने, उनकी देह के माध्यम से कार्य किया है, तो वे परमेश्वर क्यों नहीं कहे जा सकते हैं? आज का परमेश्वर, परमेश्वर की आत्मा है जोकि सीधा देह में कार्य कर रहा है, और यीशु भी परमेश्वर की आत्मा था जोकि देह में कार्य कर रहा था। ये बाद के दो, परमेश्वर कहलाते हैं। तो फर्क क्या है? पूरे समय में, उन सभी लोगों के पास जिनका परमेश्वर ने उपयोग किया है सामान्य सोच और कारण रहे हैं। वे सब जानते हैं कि कैसे स्वयं आचरण करना है और जीवन के मामलों को सँभालना है। उनके पास सामान्य मानव विचारधारा है और वे सभी चीज़ें हैं जो सामान्य लोगों के पास होनी चाहिए। उनमें से अधिकतर लोगों के पास असाधारण प्रतिभा और सहज ज्ञान है। उन लोगों के माध्यम से कार्य करने में, परमेश्वर की आत्मा उनकी प्रतिभा का उपयोग करती है, जोकि उनके ईश्वर-प्रदत्त वरदान हैं। यह परमेश्वर की आत्मा ही है जो परमेश्वर की सेवा करने की उनकी शक्तियों का उपयोग करके उनकी प्रतिभाओं को सक्रिय करती है। हालाँकि, परमेश्वर का सार विचारधारा-मुक्त और विचार-मुक्त है। यह मनुष्य के विचारों को शामिल नहीं करता है और यहाँ तक कि उसमें उन बातों का भी अभाव है जो मनुष्यों में सामान्य रूप से होती हैं। अर्थात्, परमेश्वर मानव आचरण के सिद्धांतों को समझता तक नहीं है। जब आज का परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तब ऐसा ही होता है। वह मनुष्य के विचारों या मनुष्य की सोच को शामिल किए बिना कार्य करता और बोलता है, परन्तु आत्मा का वास्तविक अर्थ सीधे प्रकट करता है और सीधे परमेश्वर की ओर से कार्य करता है। इसका अर्थ है कि आत्मा कार्य करने के लिए आगे आती है, जो मनुष्य के विचारों को थोड़ा सा भी शामिल नहीं करती है। अर्थात्, देहधारी परमेश्वर सीधे ईश्वरत्व का अवतार होता है, मनुष्य की सोच या विचारधारा के बिना होता है, और मानव आचरण के सिद्धांतों की कोई समझ नहीं रखता है। अगर वहाँ केवल दिव्य कार्य होते (अर्थात् यदि केवल स्वयं परमेश्वर कार्य कर रहे होते), तो परमेश्वर का कार्य पृथ्वी पर पूरा नहीं किया जा सकता था। इसलिए जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, उसे कुछ लोग रखने ही पड़ते हैं जिनका वह ईश्वरत्व में अपने कार्य के साथ संयोजन में मानवता में कार्य करने के लिए उपयोग करता है। दूसरे शब्दों में, वह अपने ईश्वरीय कार्य का समर्थन करने के लिए मनुष्य के कार्य का प्रयोग करता है। अन्यथा, मनुष्य ईश्वरीय कार्य के साथ सीधे संपर्क में आने में असमर्थ होगा। यीशु और उसके अनुयायियों के साथ भी ऐसा ही था। अपने जीवन के दौरान यीशु ने पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर दिया और नयी आज्ञाओं की स्थापना की। उसने बहुत सारी बातें भी की। यह सब ईश्वरत्व में किया गया था। पतरस, पौलुस, और युहन्ना जैसे अन्य सभी लोगों ने अपने बाद के कार्य को यीशु के वचनों की बुनियाद पर स्थापित किया। अर्थात्, उस युग में परमेश्वर प्रक्षेपित करने का कार्य कर रहा था, अनुग्रह के युग को आगे बढ़ा रहा था। पुराने युग को समाप्त करके, वह एक नए युग को लाया, और ‘परमेश्वर ही आरम्भ और अंत है’ वचन को सत्य किया। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को अवश्य ईश्वरीय कार्य की बुनियाद पर मानव कार्य करना चाहिए। यीशु ने जब सब कुछ कह दिया जिसकी उसे कहने की आवश्यकता थी और पृथ्वी पर अपना कार्य समाप्त कर लिया, तो वह मनुष्यों के बीच से प्रस्थान कर गया। और उसके बाद लोगों ने उसके वचनों में सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया और उसके द्वारा बोले गए सत्य के अनुसार व्यवहार किया। ये सभी यीशु के लिए कार्य करने वाले लोग थे। यदि यीशु अकेला कार्य कर रहा होता, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने कितनी बातें की, तब भी लोग उसके वचनों के संपर्क में नहीं आ पाते, क्योंकि उसने ईश्वरत्व में कार्य किया और केवल दिव्य भाषण ही बोल सकता था। उसके लिए बातों की वहाँ तक व्याख्या करना असंभव था जहाँ सामान्य लोग उसके वचनों को समझ सकें। इसलिए उसे प्रेरित और नबी रखने पड़े जो उसके बाद में उसके कार्य को पूरा करने के लिए आए। यह सिद्धांत है कि कैसे देहधारी परमेश्वर कार्य करता है – बोलने और कार्य करने के लिए देहधारी की देह का उपयोग करता है ताकि इश्वरत्व का कार्य पूरा हो जाए, और फिर परमेश्वर के कार्य को पूरा करने के लिए परमेश्वर के पसंद के कुछ या अधिक लोगों को उपयोग करता है। अर्थात्, परमेश्वर अपनी पसंद के लोगों का अपने मन के अनुसार ले चलने के लिए और मानवता में कार्य करने के लिए उपयोग करता है ताकि हर व्यक्ति सत्य को प्राप्त कर सके।
यदि परमेश्वर केवल देह में आता और अपने सहयोग के लिए परमेश्वर की पसंद के कुछ अतिरिक्त लोगों को लिए बिना ईश्वरत्व का कार्य करता, तो मनुष्य परमेश्वर की इच्छा को समझने में असमर्थ होता और परमेश्वर के साथ संपर्क में होने में असमर्थ होता। इस कार्य को करने के लिए, गिरजाघरों की देख-रेख करने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए परमेश्वर को अपनी पसंद के कुछ साधारण लोगों का उपयोग करना है, ताकि मनुष्य की सोच और मनुष्य का मस्तिष्क परमेश्वर के कार्य की कल्पना करने में सक्षम हो सकें। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ईश्वरत्व में उसके कार्य का “अनुवाद” करने, उसे प्रकट करने, अर्थात्, दैवीय भाषा को मानव भाषा में रूपांतरित करने के लिए अपनी पसंद के कुछ लोगों का उपयोग करता है, ताकि सभी लोगों को उसका पता चल सके, सब उसे समझ सकें। यदि परमेश्वर ऐसा नहीं करता, तो कोई भी परमेश्वर की ईश्वरीय भाषा को समझ नहीं पाता, क्योंकि परमेश्वर की पसंद के ऐसे लोगों की संख्या, अंततः, थोड़ी ही है, और मनुष्य की समझने क्षमता कमज़ोर है। यही कारण है कि परमेश्वर अवतार के माध्यम से कार्य करते समय इस विधि को चुनता है। यदि वहाँ केवल दिव्य कार्य होता, तो मनुष्य परमेश्वर को जानने में और उसके साथ संपर्क में आने में असमर्थ होता क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर की भाषा समझ नहीं आती है। मनुष्य उसके शब्दों को स्पष्ट करने के लिए इस भाषा को केवल उन लोगों के माध्यम से ही समझ सकने में समर्थ है जो परमेश्वर की पसंद के हैं। हालाँकि, यदि मानवता में कार्य करने वाले केवल ऐसे ही लोग होते, तो यह केवल मनुष्य के सामान्य जीवन को बनाए रखने में सक्षम होता, यह मनुष्य के स्वभाव को बदलने में सक्षम नहीं होता। परमेश्वर का कार्य एक नई शुरुआत करने में सक्षम नहीं होता; वहाँ केवल उसी प्रकार के पुराने गीत होते, वही पुरानी मामूली बातें होती। यह केवल देहधारी परमेश्वर के माध्यम से देह के स्तर पर वह कहा जा रहा है जो कहे जाने की आवश्यकता है और किया जा रहा है जो किए जाने की आवश्यकता है, और उसके बाद के लोग उसके वचनों के अनुसार उसके कार्य कर रहे हैं और अनुभव कर रहे हैं, कि उनके जीवन का स्वभाव बदलने में सक्षम है और वे समय के साथ चलने में सक्षम हैं। जो कोई ईश्वरत्व में कार्य करता है वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि जो मानवता में कार्य करते हैं वे परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए जाते हैं। अर्थात्, देहधारी परमेश्वर उन लोगों से मौलिक रूप से भिन्न है जो परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए हैं। देहधारी परमेश्वर ईश्वरत्व का कार्य कर सकता है, परन्तु परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए गए लोग नहीं कर सकते हैं। हर युग की शुरुआत में, परमेश्वर की आत्मा नया युग शुरू करने के लिए और मनुष्य को एक नई शुरुआत तक लाने के लिए व्यक्तिगत रूप से बोलती है। जब वह अपना बोलना पूरा कर लेती है, तो यह प्रकट करता है कि परमेश्वर का ईश्वरत्व में कार्य हो चुका है। उसके बाद, सभी लोग अपने जीवन में आत्मिक अनुभव में प्रवेश करने के लिए उन लोगों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए गए हैं। इसी तरह, इस चरण में परमेश्वर मनुष्य को नए युग में लाता है और हर किसी को एक नयी शुरुआत देता है। इस के साथ, देह में परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है।
परमेश्वर इस पृथ्वी पर अपनी सामान्य मानवता को परिपूर्ण करने के लिए नहीं आता है। वह सामान्य मानवता का कार्य करने के लिए नहीं आता है, बल्कि केवल सामान्य मानवता के भीतर ईश्वरत्व का कार्य करने के लिए आता है। परमेश्वर जिसे सामान्य मानवता समझता है, यह वह नहीं है जिसकी मनुष्य कल्पना करता है। मनुष्य ‘सामान्य मानवता’ को जिस रूप में परिभाषित करता है वह है एक पत्नी, या एक पति, बेटे और बेटियों का होना। मनुष्य के लिए,[क] इन बातों का अर्थ है कि एक सामान्य व्यक्ति है। परन्तु परमेश्वर इसे इस तरह से नहीं देखता है। वह सामन्य मानवता को सामान्य मानव विचारों और जीवन वाली और सामान्य लोगों से जन्म लेने वाली के रूप में देखता है। परन्तु जैसे कि मनुष्य सामान्य स्थिति को समझता है उसकी सामान्य स्थिति में एक पत्नी, या एक पति और बच्चे शामिल नहीं हैं। अर्थात्, मनुष्य के लिए, सामान्य मानवता जिसके बारे में परमेश्वर बताते हैं, वह है जिसे मनुष्य मानवता की अनुपस्थिति मानेगा, भावनाओं का लगभग अभाव और प्रकट रूप से दैहिक आवश्यकताओँ से विहीन, बस यीशु के समान, जिसका केवल बाह्य स्वरूप एक सामान्य व्यक्ति का था और एक सामान्य व्यक्ति का रूप-रंग धारण कर लिया था, परन्तु वास्तव में उसके पास वह सब नहीं था जो एक सामान्य व्यक्ति के पास होता है। इस से हम यह देख सकते हैं कि देहधारी परमेश्वर का तत्व सामान्य मानवता की सम्पूर्णता को नहीं, बल्कि सामान्य मानव जीवन और सामान्य मानव ज्ञान के नियमों को बनाए रखने के लिए, केवल उन्हीं चीजों के एक भाग को घेरता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। परन्तु इन चीजों का उस बात से कोई लेना-देना नहीं है जिसे मनुष्य सामान्य मानवता समझता है। ये वे हैं जो देहधारी परमेश्वर के पास होनी चाहिए। हालाँकि, कुछ लोगों का कहना है कि देहधारी परमेश्वर के पास सामान्य मानवता होना केवल तभी कहा जा सकता है अगर उसके पास एक पत्नी, बेटे और बेटियाँ, और एक परिवार हो। इन चीजों के बिना, उनका कहना है, कि वह एक सामान्य व्यक्ति नहीं है। तब मैं आप से पूछता हूँ, कि क्या परमेश्वर के पास एक पत्नी है? क्या यह संभव है कि परमेश्वर का एक पति हो? क्या परमेश्वर के बच्चे हो सकते हैं? क्या ये भ्रांतियाँ नहीं हैं? हालाँकि, देहधारी परमेश्वर चट्टानों के बीच की दरारों से निकल कर नहीं आ सकता है, या आसमान से नीचे नहीं गिर सकता है। वह केवल एक सामान्य मानव परिवार में ही जन्म ले सकता है। यही कारण है कि उसके माता-पिता और बहनें हैं। एक देहधारी परमेश्वर के पास सामान्य मानवता की इन बातों का होना अनिवार्य है। यीशु के साथ भी ऐसा ही मामला था। यीशु के पिता और माता, बहनें और भाई थे। यह सब सामान्य था। परन्तु अगर उसकी एक पत्नी और बेटे और बेटियाँ होतीं तो उसकी वह सामान्य मानवता नहीं होती जो एक देहधारी परमेश्वर में, परमेश्वर चाहता था। यदि ऐसा होता, तो वह अपने कार्य में ईश्वरत्व का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं होता। यह इसलिए था क्योंकि उसके पास पत्नी या बच्चे नहीं थे, बल्कि उसका जन्म एक सामान्य परिवार में, सामान्य लोगों के द्वारा हुआ था, इसलिए वह ईश्वरत्व के कार्य को पूरा कर पाया। स्पष्ट करने के लिए, परमेश्वर जिसे एक सामान्य व्यक्ति समझता है, वह एक सामान्य परिवार में जन्मा हुआ एक व्यक्ति है। केवल इस तरह का व्यक्ति ही ईश्वरत्व के कार्य को करने के योग्य है। दूसरी ओर, अगर एक व्यक्ति के एक पत्नी, बच्चे, या एक पति होते तो वह व्यक्ति ईश्वरत्व के कार्य को करने में सक्षम नहीं होता क्योंकि उसके पास केवल सामान्य मानवता होती जिसकी मनुष्य को आवश्यकता होती है परन्तु वह सामान्य मानवता नहीं होती जिसकी परमेश्वर को आवश्यकता है। परमेश्वर के विचार और लोगों की समझ अक्सर बहुत अधिक अलग होती हैं। परमेश्वर के कार्य का यह चरण अधिकतर लोगों की धारणाओं के विरुद्ध लड़ता है और बहुत अलग होता है। कोई कह सकता है कि परमेश्वर के कार्य का यह समस्त चरण मानवता द्वारा एक सहायक भूमिका निभाने के साथ, व्यावहारिक व क्रियाशील ईश्वरत्व द्वारा किया गया है। क्योंकि परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्य के कार्य करने देने के बजाय अपना कार्य स्वयं करने के लिए आया है, इसलिए वह अपना कार्य करने के लिए स्वयं अपने आप को देह में (एक अपूर्ण, सामान्य व्यक्ति के शरीर में) अवतरित करता है। वह इस अवतार का मानवता को नया युग प्रस्तुत करने, मनुष्यजाति को अपने कार्य में अगले कदम के बारे में बताने के लिए उपयोग करता है, ताकि वे उसके वचन द्वारा बताए गए मार्ग के अनुसार व्यवहार कर सकें। उसके साथ, परमेश्वर देह के अपने कार्य को समाप्त करता है। सामान्य मानवता की देह में अब और न रहते हुए, बल्कि इसके बजाय अपने कार्य के दूसरे भाग को करने के लिए मानव जाति से दूर जाते हुए, उसे मनुष्यजाति से प्रस्थान करने की आवश्यकता है। फिर पृथ्वी पर अपनी पसंद के लोगों के समूह के बीच अपने कार्य को जारी रखने के लिए वह इन लोगों का, परन्तु मानवता में, उपयोग करता है।
देहधारी परमेश्वर हमेशा के लिए मनुष्य के साथ नहीं रह सकता है, क्योंकि परमेश्वर के पास करने के लिए बहुत से और कार्य हैं भी हैं। उसे देह में बाँधा नहीं जा सकता है; उसे जो कार्य करने की आवश्यकता है, वह करने के लिए उसे देह छोड़नी है, यद्यपि वह देह की छवि में ही उस कार्य को करता है। जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तो वह उस अवस्था तक पहुँचने की प्रतीक्षा नहीं करता है जिस तक एक सामान्य व्यक्ति मरने या छोड़ कर जाने से पहले एक जीवनकाल में पहुँचता है। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उसकी देह कितने वर्ष की है, जब उसका कार्य खत्म हो जाता है, तो वह चला जाता है और मनुष्य को छोड़ देता है। उसकी कोई उम्र नहीं है, वह मनुष्य की उम्र के अनुसार अपने दिन नहीं गिनता है। इसके बजाय, अपने कार्य के चरण के अनुसार वह देह का अपना जीवन समाप्त कर लेता है। कुछ लोग यह महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर, जो देह में आता है, को अवश्य एक निश्चित अवस्था तक विकसित होना चाहिए, वयस्क होना चाहिए, वृद्धावस्था तक पहुँचना चाहिए, और केवल तभी छोड़ कर जाना चाहिए जब उसका शरीर कार्य करना बंद कर दे। यह मनुष्य की कल्पना है; परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता है। वह देह में केवल उसी कार्य को करने के लिए आता है जो उसके द्वारा किया जाना अपेक्षित है, न कि माता-पिता से जन्मे हुए मनुष्य की तरह जीवन जीने, बढ़ने, परिवार बनाने और जीविका आरंभ करने, बच्चे होने, या जीवन के उतार-चढ़ाव का अनुभव करने - सामान्य जीवन की सारी गतिविधियों - के लिए। परमेश्वर का पृथ्वी पर आना परमेश्वर की आत्मा का देह में लाया जाना, देह में आना है, परन्तु परमेश्वर एक सामान्य मानव जीवन नहीं जीता है। वह केवल अपनी प्रबंधन योजना का एक भाग पूरा करने के लिए आता है। उसके बाद वह मनुष्यजाति को छोड़ देगा। जब वह देह में आता है, तो परमेश्वर की आत्मा देह की सामान्य मानवता को परिपूर्ण नहीं करती है। बल्कि, परमेश्वर के पूर्व-निर्धारित समय पर, ईश्वरत्व सीधे कार्य करता है। तब, वह सब जो उसे करने की आवश्यकता है करने के बाद और अपनी सेवकाई को पूरी तरह से पूर्ण करके, परमेश्वर की आत्मा का इस चरण का कार्य पूरा हो जाता है, उस समय इस बात पर ध्यान दिए बिना कि क्या उसकी देह मृत्यु की आयु तक पहुँची है अथवा नहीं देहधारी परमेश्वर का जीवन खत्म हो जाता है। अर्थात्, जीवन की किस अवस्था तक देह पहुँचती है, कब तक यह पृथ्वी पर रहती है, यह सब आत्मा के कार्य पर निर्भर करता है। मनुष्य सामान्य मानवता के बारे में क्या समझता है इसका इस बात से कोई लेन-देन नहीं है। यीशु को एक उदाहरण के रूप में लें। वह देह में साड़े तैंतीस साल रहा। मनुष्य की देह के जीवन काल के अनुसार, उसे उस उम्र पर नहीं मरना चाहिए था और छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था। परन्तु परमेश्वर की आत्मा इन सभी के बारे में परवाह नहीं करती है। जब उसका कार्य खत्म हो गया, तो आत्मा को ओझल करने के साथ, देह को अलग कर दिया गया। यही वह सिद्धांत है कि कैसे परमेश्वर देह में कार्य करता है। इसलिए, यदि दृढ़ता से बोलें तो देहधारी परमेश्वर सामान्य मानवता से रहित है। फिर से, वह पृथ्वी पर एक सामान्य मानव जीवन जीने के लिए नहीं आता है। वह ऐसा नहीं करता कि पहले एक सामान्य मानव जीवन को स्थापित करे, फिर कार्य करना शुरू करे। बल्कि, जब तक वह एक सामान्य मनुष्य परिवार में जन्म लेता है, वह ईश्वरत्व का कार्य करने में सक्षम है। वह मनुष्य के विचारों का ज़रा सा भी उपयोग नहीं करता है; वह शारीरिक नहीं है, और वह निश्चित रूप से समाज के तौर-तरीकों को नहीं अपनाता है और न ही मनुष्य के विचारों या धारणाओं में संलिप्त नहीं होता है, मानव आचरण के सिद्धांतों के साथ बहुत कम जुड़ता है। यही वह कार्य है जो देहधारी परमेश्वर करना चाहता है और यही उसके अवतार का व्यावहारिक महत्व है। परमेश्वर देह में, मुख्य रूप से अपने कार्य के एक उस चरण को करने के लिए आता है जिसे देह में किया जाना आवश्यक है। वह किसी अन्य मामूली प्रक्रियाओं का उत्तरदायित्व नहीं लेता है, और वह सामान्य मनुष्य के अनुभवों को अनुभव नहीं करता है। वह कार्य जो परमेश्वर के अवतार की देह को करने की आवश्यकता है उसमें सामान्य मनुष्य के अनुभव शामिल नहीं है। इसलिए, परमेश्वर देह में केवल उसी कार्य को पूरा करने के लिए आता है जिस कार्य को उसे देह में रहकर पूरा करने की आवश्यकता है। बाकी किसी और बात से उसका कुछ लेना देना नहीं है। वह उन मामूली प्रक्रियाओं को नहीं करता है। एक बार जब उसका कार्य पूरा हो जाता है, तो उसके देह धारण का महत्व समाप्त हो जाता है। इस चरण को समाप्त करने का अर्थ है कि उसे जिस कार्य को देह में करने की आवश्यकता है वह कार्य समाप्त हो गया है, उसकी देह कि सेवकाई पूरी हो चुकी है। परन्तु वह अनिश्चित काल तक देह में कार्य नहीं करता रह सकता है। उसे किसी अन्य जगह, देह के बाहर किसी जगह, पर कार्य करने के लिए जाना है। केवल इस तरह से ही वह अपने कार्य को पूरी तरह से पूरा कर सकता है और उसका बेहतर ढंग से विस्तार कर सकता है। परमेश्वर अपनी मूल योजना के अनुसार कार्य करता है। वह बहुत अच्छी तरह से जानता है कि उसे क्या करने की आवश्यकता है और वह कौन से काम पूरे कर चुका है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति को उस रास्ते पर ले जाता है जो उसने पहले से ही पूर्व निर्धारित कर दिया है। इस से कोई भी नहीं बच सकता है। केवल वे लोग जो परमेश्वर की आत्मा के मार्गदर्शन का अनुसरण करते हैं, विश्राम में प्रवेश कर पाएँगे। हो सकता है कि बाद के कार्य में, परमेश्वर देह में बोलकर मनुष्य का नेतृत्व न कर रहा हो, बल्कि एक मूर्त आत्मा मनुष्य के जीवन का नेतृत्व कर रही हो। केवल तभी मनुष्य परमेश्वर को वस्तुतः छूने में, परमेश्वर को देखने में, और पूरी तरह से उस वास्तविकता में जिसकी परमेश्वर को आवश्यकता है, प्रवेश करने में सक्षम होगा, ताकि व्यावहारिक परमेश्वर द्वारा परिपूर्ण किया जा सके। यही वह कार्य है जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, जिसकी उसने लंबे समय से योजना बनाई हुई है। इस से, आप सभी को वह मार्ग देखना चाहिए जिसका चुनाव आपको करना है!
फुटनोट्स:
क. मूल पाठ छोड़ता है “मनुष्य के लिए”

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