यह स्वर्ग का नियम और पृथ्वी का सिद्धांत है कि परमेश्वर पर विश्वास किया जाए और उसको जाना जाए, और आज - इस युग के दौरान जब देहधारी परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है - यह परमेश्वर को जानने के लिए विशेष अच्छा समय है। परमेश्वर को संतुष्ट करना उसकी इच्छा को समझने पर आधारित है, और परमेश्वर की इच्छा को जानने के लिए, परमेश्वर को अच्छी तरह से जानना आवश्यक है। परमेश्वर की यह जानकारी एक दर्शन है जो एक विश्वासी के पास होना चाहिए; यह परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास का आधार है। यदि मनुष्य में यह ज्ञान न हो तो परमेश्वर पर उसका विश्वास अस्पष्ट होता है, और खोखले सिद्धांत में होता है। हालांकि परमेश्वर का अनुसरण करना इस तरह के लोगों का संकल्प है, वे कुछ भी प्राप्त नहीं करते हैं। वे सभी जो इस धारा से कुछ भी प्राप्त नहीं करते हैं, वे हटा दिए जाएंगे, और वे ऐसे लोग हैं जो बहुत ही कम कार्य कर रहे हैं। तुम परमेश्वर के कार्य का कोई सा भी कदम का अनुभव करो, तुम्हारे पास एक सामर्थी दर्शन होना चाहिए। इस प्रकार के दर्शन के बिना, तुम्हारे लिए नए कार्य के प्रत्येक चरण को स्वीकारना कठिन कार्य होगा, क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के नए कार्य की कल्पना करने में अयोग्य है, यह मनुष्य की धारणाओं से बाहर है। इसलिए बिना चरवाहे के मनुष्य के द्वारा चलना, बिना चरवाहे की दर्शन के बारे में संगति करना, परमेश्वर नए कार्य को स्वीकारने में अयोग्य है। यदि मनुष्य दर्शन प्राप्त नहीं कर सकता है, तो वह परमेश्वर के नए कार्य को प्राप्त नहीं कर सकता है, और यदि मनुष्य परमेश्वर के नए कार्य का आज्ञापालन नहीं कर सकता है, तो मनुष्य परमेश्वर की इच्छा को समझने में योग्य नहीं होता है, और इसलिए परमेश्वर के संबंध में उसका ज्ञान कुछ भी नहीं है। इससे पहले कि मनुष्य परमेश्वर के वचनों का पालन करे, उसे परमेश्वर के वचनों को जानना होगा, यानि परमेश्वर की इच्छा को जानना होगा; केवल इसी प्रकार से परमेश्वर के वचनों को यथार्थ तौर पर और परमेश्वर के हृदय के अनुसार किया जा सकता है। इसे हर उस व्यक्ति के द्वारा किया जाना चाहिए जो सत्य को खोजता है, और यही वह प्रक्रिया है जिसका अनुभव हर उस व्यक्ति को करना चाहिए जो परमेश्वर को जानने की कोशिश करता है। परमेश्वर के वचन को जानने की प्रक्रिया, परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया है, और परमेश्वर के कार्य को जानने की भी प्रक्रिया है। इसलिए दर्शन को जानना न केवल देहधारी परमेश्वर की मानवता को जानने से संबंध रखता है, बल्कि इसमें परमेश्वर के वचनों और कार्यों को जानना भी सम्मिलित है। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से लोग परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं, और परमेश्वर के कार्य के माध्यम से वे परमेश्वर के स्वभाव को जानते हैं और कि परमेश्वर क्या है। परमेश्वर पर विश्वास करना परमेश्वर को जानने की ओर पहला कदम है। परमेश्वर में प्रारम्भिक विश्वास से परमेश्वर पर सबसे गहरा विश्वास तक आगे बढ़ने की प्रक्रिया परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया है, और परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करने की प्रक्रिया है। यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास केवल विश्वास दिखाने के लिए करते हो, न कि परमेश्वर को जानने के लिए उस पर विश्वास करते हो, तो तुम्हारे विश्वास में कुछ भी सत्य नहीं है, और यह शुद्ध नहीं होसकता है - इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। यदि परमेश्वर का अनुभव करने की प्रक्रिया में, मनुष्य धीरे-धीरे परमेश्वर को जानने लगता है, तो उसका स्वभाव भी धीरे-धीरे बदलेगा, और उसका विश्वास उत्तरोत्तर सत्य होगा। इस प्रकार से, जब मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करने में सफलता प्राप्त करता है, वह पूरी तरह से परमेश्वर को प्राप्त कर लेगा। परमेश्वर इस हद तक चला गया कि वह दूसरी बार देहधारण करके आया और व्यक्तिगत तौर पर अपने कार्य को किया ताकि मनुष्य उसे जान सके, और उसे देख सके। परमेश्वर को जानना[अ] परमेश्वर के कार्य के अंत में अंतिम प्रभाव को प्राप्त करना है; यही परमेश्वर की मानवजाति से अंतिम अपेक्षा है। यह उसने अपनी निर्णायक गवाही की खातिर करता है, ताकि मनुष्य अंततः और पूरी तरह से उसकी ओर फिरे। मनुष्य परमेश्वर से प्रेम केवल परमेश्वर को जान करके ही कर सकता है और परमेश्वर को प्रेम करने के लिए उसे परमेश्वर को जानना होगा। इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसे खोजता है या क्या प्राप्त करने के लिए खोज करता है, उसे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बनना आवश्यक है। केवल इसी प्रकार से मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट कर सकता है। केवल परमेश्वर को जान कर ही मनुष्य सचमुच परमेश्वर पर विश्वास कर सकता है और केवल परमेश्वर को जान कर ही वह परमेश्वर का सचमुच आदर और आज्ञापालन कर सकता है। जो लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं वे उसका वास्तव में आदर और आज्ञापालन कभी नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर को जानने में परमेश्वर के स्वभाव को जानना, परमेश्वर की इच्छा को समझना, और यह जानना शामिल है कि परमेश्वर क्या है। फिर भी परमेश्वर को जानने का जो कोई भी पहलु वह हो, प्रत्येक के लिए मनुष्य को एक मूल्य चुकाना होगा, और उसकी इच्छा को मानना आवश्यक है, जिसके बिना अंत तक कोई भी परमेश्वर का अनुसरण करने के योग्य नहीं होगा। मनुष्य की धारणाओं के सामने परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से असंगत नज़र आता है, परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर क्या है यह मनुष्य के लिए जानना बहुत ही कठिन है, और जो कुछ परमेश्वर कहता और करता है वह भी मनुष्य की समझ से परे है; यदि मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करना चाहता है, परन्तु परमेश्वर की आज्ञापालन करने की इच्छा नहीं रखता है, तो मनुष्य कुछ भी प्राप्त नहीं करेगा। उत्पत्ति से लेकर आज तक, परमेश्वर ने बहुत कार्य किया है जो मनुष्य की समझ से बाहर है और जिसे मनुष्य ग्रहण करने में कठिनाई महसूस करता है, और परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है जो मनुष्य की धारणाओं को ठीक होने में कठिनाई प्रस्तुत करता है। फिर भी वह अपना कार्य करना कभी भी बंद नहीं करता है क्योंकि मनुष्य के पास कई सारी समस्याएं हैं; वह कार्य करने और बोलने का कार्य जारी रखा है और हालांकि किनारे पर बहुत सारे “योद्धा” गिरे हैं, वह फिर भी अपना कार्य करता जाता है और लोगों के ऐसे समूहों एक के बाद एक चुनना जारी रखता है जो उसके नए कार्य का पालन करने की इच्छा जताते हैं। वह उन गिरे हुए “नायकों” पर दया नहीं दिखाता है, परन्तु उन्हें सम्भाल कर रखता है जो उसके वचन और नए कार्य को स्वीकार करते हैं। लेकिन किस उद्देश्य के लिए वह इस तरह कार्य को कदम दर कदम करता है? वह क्यों हमेशा लोगों को ख़त्म करता और चुनता रहता है? वह क्यों हमेशा इस प्रकार के तरीकों का इस्तेमाल करता रहता है? उसके कार्य का लक्ष्य यह है कि मनुष्य उसे जानें, और इस प्रकार से उसके द्वारा प्राप्त किए जाएं। उसके कार्य का नियम उन लोगों पर कार्य करना है जो आज उसके किए गए कार्य को मानने के लिए तैयार हैं, और उन पर कार्य नहीं करता जो उसके अतीत के कार्य का मानते हैं, परन्तु आज उसके कार्य का विरोध करते हैं। यही मुख्य कारण है कि उसने इतने सारे लोगों को ख़त्म कर दिया है।
परमेश्वर को जानने के पाठ का प्रभाव एक या दो दिन में प्राप्त नहीं किया जा सकता हैः मनुष्य को अनुभव एकत्रित करना, परेशानियों से होकर जाना, और सच्ची आज्ञाकारिता होनी चाहिए। सबसे पहले, परमेश्वर के कार्य और वचन से प्रारम्भ करना होगा। तुम्हें यह जानना होगा कि परमेश्वर को जानने में क्या-क्या सम्मिलित है, परमेश्वर का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है, और अपने अनुभवों के दौरान परमेश्वर को कैसे देखा जा सकता है। यही चीज प्रत्येक व्यक्ति को करना आवश्यक है जब वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं। कोई भी परमेश्वर के कार्य और वचन को सीधे तौर पर नहीं समझ सकता है, और कोई भी परमेश्वर के ज्ञान को अल्प समय में पूरी तरह से नहीं प्राप्त कर सकता है। सबसे ज्यादा आवश्यकता अनुभव की आवश्यक प्रक्रिया की है, जिसके बिना कोई भी परमेश्वर को जानने या वास्तव में उसका अनुसरण करने के योग्य नहीं बन पाएगा। जितना अधिक कार्य मनुष्य करता है, वह उतना ही अधिक परमेश्वर को जानता है। जितना अधिक मनुष्य की धारणाएं परमेश्वर के कार्यों के प्रतिकूल होती हैं, उतना ही अधिक परमेश्वर के प्रति मनुष्य का ज्ञान नया और गहरा होगा। यदि परमेश्वर का कार्य हमेशा के लिए अपरिवर्तित रहा होता, तो मनुष्य के पास परमेश्वर का केवल अल्प ज्ञान ही होता। संसार की उत्पत्ति से लेकर आज तक, तुम लोगों को स्पष्टता से जानना होगा कि परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में क्या किया, अनुग्रह के युग में और राज्य के युग में उसने क्या किया। तुम लोगों को परमेश्वर के कार्य को जानना होगा। केवल यीशु का अनुसरण करने के द्वारा ही पतरस ने पवित्र आत्मा के द्वारा यीशु में किए गए अधिकांश कार्य को धीरे-धीरे समझा। उसने कहा, “मनुष्य के अनुभवों पर भरोसा करना परमेश्वर के पूरे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है; परमेश्वर के कार्य में ऐसी काफी नई बातें होनी चाहिए जो परमेश्वर को जानने में हमारी सहायता कर सकें।” प्रारम्भ में, पतरस यह मानता था कि यीशु को परमेश्वर ने भेजा है, एक प्रेरित के जैसे, और उसने यीशु को मसीहा के तौर पर नहीं देखा था। जबकि पतरस को यीशु के अनुसरण(ब) के लिए बुलाया गया था, यीशु ने उससे पूछा, “शिमौन, योना के पुत्र, क्या तुम मेरा अनुसरण करोगे?” पतरस ने कहा, “मैं स्वर्गीय पिता के द्वारा भेजे हुए का अनुसरण अवश्य करूंगा। मैं उसको अवश्य ही स्वीकार करूँगा जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा चुना गया है। मैं तुम्हारे पीछे हो लूंगा|” उसके वचनों से, ऐसा देखा जा सकता है कि पतरस को यीशु के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं था; उसने परमेश्वर के वचनों का अनुभव किया था, स्वयं के साथ कार्य किया था और परमेश्वर के लिए दुखों को उठाया था, फिर भी वह परमेश्वर के कार्य को नहीं जानता था। कुछ समय के अनुभव के बाद, पतरस ने यीशु में परमेश्वर के बहुत सारे कार्यों को देखा, परमेश्वर की सुंदरता को देखा, और यीशु में परमेश्वर की बहुत कुछ समानता को देखा था। इसलिए भी उसने यह देखा कि यीशु के वचनों को कोई मनुष्य नहीं बोल सकता था, और उसके कार्यों को कोई और मनुष्य नहीं कर सकता था। इसके अलावा, यीशु के वचनों और कार्यों में पतरस ने परमेश्वर के अधिकांश ज्ञान, और बहुत ही अलौकिक कार्यों को देखा। अपने अनुभवों के दौरान, उसने न सिर्फ़ अपने आप जाना, परन्तु यीशु के कार्यों को भी देखने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया, जिससे उसने कई नई बातों को खोजा; यानि कि पमरेश्वर द्वारा यीशु के माध्यम से किए गए कार्य में व्यावहारिक परमेश्वर के कई सारे भाव थे, और यीशु के वचनों, कार्यों और कलीसियों की चरवाही करने के तरीके और उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य साधारण मनुष्य से पूरी तरह से भिन्न थे। इस प्रकार से, यीशु से उसने कई पाठ सीखे जो उसे सीखने चाहिए थे, और यीशु को क्रूस पर चढ़ाए जाने के समय तक, उसने यीशु के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया था - ज्ञान जिस के आधार पर वह यीशु के लिए जीवन भर वफादार बना रह सका और यीशु के लिए क्रूस पर उलटा भी लटक सकता था। उसकी कुछ धारणाएं थीं, और प्रारम्भ में यीशु के बारे में स्पष्ट ज्ञान नहीं था, परन्तु इस प्रकार की बातें एक भ्रष्ट मनुष्य में अनिवार्य रूप से पाई जाती हैं। जब उसके जाने का समय नज़दीक आया, यीशु ने पतरस से कहा कि क्रूस पर चढ़ना वह कार्य था जिसे करने के लिए वह आया था, उसे इस युग के द्वारा त्याग दिया जाना होगा, इस अशुद्ध युग को उसे क्रूस पर चढ़ाना होगा, और वह छुटकारे के कार्य को पूरा करने के लिए आया है और उस कार्य को पूर्ण करने के बाद, उसकी सेवकाई समाप्त हो जाएगी। इस बात को सुनने के बाद, पतरस दुख से भर गया और यीशु के प्रति अधिक गहराई से समर्पित हो गया। जब यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया गया, पतरस अकेले में फूट-फूट कर रोया। इससे पहले, उसने यीशु से पूछा, “मेरे प्रभु! तुम कहते हो कि तुम्हें क्रूस पर चढ़ाया जाने वाला है। तुम्हारे जाने के बाद, हम तुम्हें फिर कब देखेंगे?” क्या इन शब्दों में कुछ मिलावट नहीं है जो उसने कहे? क्या यहां पर उसकी धारणाएं नहीं हैं? अपने हृदय में, वह जानता था कि यीशु को परमेश्वर के कार्य के भाग को पूरा करने के लिए वापस आना है, और यीशु के वापस जाने के बाद, आत्मा उसके साथ रहेगा; हालांकि उसे क्रूस पर चढ़ाया जाना है और उसके बाद स्वर्ग जाना है, परमेश्वर का आत्मा उसके साथ रहेगा। उस समय, उसके पास यीशु के बारे में कुछ ज्ञान था और वह जानता था कि उसे परमेश्वर के आत्मा के द्वारा भेजा गया है, कि परमेश्वर का आत्मा उसके भीतर है, और कि यीशु स्वयं परमेश्वर था, वह मसीहा था। फिर भी यीशु के प्रति उसके प्रेम के कारण, और मनुष्य की कमज़ोरी के कारण, पतरस ने फिर भी इन शब्दों को कहा। यदि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण में सूक्ष्म अनुभवों से गुज़रों और उनका अवलोकन करो तो तुम धीरे-धीरे परमेश्वर की सुन्दरता को जान पाओगे। पौलुस का दर्शन क्या था? जब यीशु उसके सामने प्रकट हुआ, पौलुस ने कहा, “मेरे प्रभु! तुम कौन हो? ” यीशु ने कहा, “मैं यीशु हूं जिसे तुम सताते हो।” यह पौलुस का दर्शन था। पतरस ने 40 दिनों तक यीशु के पुनरुत्थान और उसके प्रकण का, और अपने जीवन भर अपनी यात्रा की समाप्ति तक यीशु की शिक्षाओं का अपने दर्शन के तौर पर इस्तेमाल किया।
मनुष्य परमेश्वर का अनुभव करता है, स्वयं को जानता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पाता है और जीवन में वृद्धि करने के लिए कोशिश करता है सब कुछ परमेश्वर को जानने के लिए ही है। यदि तुम सिर्फ़ स्वयं को जानने और स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने की कोशिश करते हो और यह नहीं जानते कि मनुष्य के लिए परमेश्वर क्या क्या कार्य करता है, उसका उद्धार कितना महान है, या तुम परमेश्वर का अनुभव कैसे करते हो और परमेश्वर के कार्यों की गवाही किस प्रकार देते हो, तो तुम्हारा अनुभव बेकार है। यदि तुम सोचते हो कि सत्य को अभ्यास में लाने के योग्य होना और उसे सहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में वृद्धि कर चुका है, तो इसका अर्थ यह है कि तुमने जीवन के सही अर्थ को अभी तक नहीं समझा है और मनुष्य के लिए कार्य करने के परमेश्वर के उद्देश्य को अभी तक नहीं समझा है। एक दिन, जब तुम धार्मिक कलीसियाओं में, पश्चातापी कलीसिया के सदस्यों के मध्य या जीवित कलीसिया के मध्य होगे, तुम ऐसे कई भक्त लोगों को पाओगे जिनकी प्रार्थनाओं में दर्शन पाया जाता है और जो छुए जाने को महसूस करते हैं और उनके पास वचन होते हैं जो जीवन का अनुसरण करने में उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। इसके अलावा, कई मामलों में वे सहने और अपने आप को त्यागने के योग्य होते हैं, देह के द्वारा अगुवाई प्राप्त न किए जाने के योग्य होते हैं। उस समय, तुम अंतर बताने के योग्य नहीं होगेः तुम विश्वास करोगे कि जो कुछ वे करेंगे वह सही है, जीवन की सामान्य अभिव्यक्ति है और अफसोस की बात है कि जिस नाम पर वे विश्वास करते हैं वह गलत है। क्या इस प्रकार का विश्वास मूर्खता नहीं है? ऐसा क्यों कहा गया कि कई लोगों के पास कोई जीवन नहीं है? क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते, और इसलिए ऐसा कहा गया है कि उनके पास परमेश्वर नहीं है, और कोई जीवन नहीं है। यदि तुम्हारा परमेश्वर पर विश्वास एक ऐसे बिन्दु तक पहुंच गया है जहां से तुम परमेश्वर के कार्यों, परमेश्वर की वास्तविकता, और परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण को पूरी तरह से जानने के योग्य हो, तो तुम्हारे पास सत्य है। यदि तुम परमेश्वर के कार्य और स्वभाव को नहीं जानते हो, तो तुम्हारा अनुभव में अभी भी कमी है। यीशु ने किस प्रकार से परमेश्वर के कार्य के उस चरण किया, इस चरण को कैसे किया जा रहा है, परमेश्वर ने किस प्रकार से अनुग्रह के युग में अपना कार्य किया और क्या कार्य किया गया है, इस चरण में कौन सा कार्य किया जा रहा है - यदि तुम्हारे पास इन बातों को सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है, तो तुम कभी भी आश्वासित और सुरक्षित महसूस नहीं करोगे। यदि, अनुभव के एक अवधि के बाद, तुम परमेश्वर के द्वारा किए गए कार्य और उसके कार्य के प्रत्येक चरण को जानने के योग्य हो, और परमेश्वर के वचनों के उद्देश्यों की पूरी जानकारी है, और पता है कि उसके द्वारा कही गई काफी बातें अभी तक पूरी क्यों नहीं हुई हैं, तो तुम आराम कर सकते हो और प्रत्येक चिंताओं या शुद्धता से स्वतंत्र होकर आगे के मार्ग पर दृढ़ता से जारी रह सकते हो। तुम लोगों को यह देखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर अपने इतने सारे कार्य को पूरा करने के लिए क्या उपयोग करता है। वह अपने कहे वचनों का उपयोग करता है, कई प्रकार के वचनों के द्वारा मनुष्य को शुद्ध करता और मनुष्य की अवधारणाओं को परिवर्तित करता है। तुम लोगों ने जो भी दुख सहा है, जो भी शुद्धता के कार्य का अनुभव किया है, जो व्यवहार तुम लोगों ने स्वयं में स्वीकार किया है, जो भी प्रबुद्धता का तुम लोगों ने अनुभव किया है - ये सभी परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचनों के उपयोग के द्वारा ही प्राप्त हुए हैं। किस वजह से मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करता है? परमेश्वर के वचनों के कारण से! परमेश्वर के वचन गहराई से रहस्मयी हैं, और मनुष्य के हृदयों को छू सकते हैं, मनुष्य के हृदयों की गहराई वाली बातों को भी प्रकट कर सकते हैं, अतीत में हुई बातों को भी बता सकते हैं और भविष्य में देखने दे सकते हैं। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के वचनों के कारण से दुखों को सहता है, और परमेश्वर के वचनों के कारण ही सिद्ध बनता है और केवल उसी के बाद मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करता है। परमेश्वर के वचन को स्वीकारने के लिए मनुष्य को इस चरण में क्या करना चाहिए, और चाहे उसे सिद्ध बनाया जाए या शुद्ध किया जाए इसकी परवाह किए बिना, जो महत्वपूर्ण है वह परमेश्वर के वचन हैं; यही परमेश्वर का कार्य है और यही दर्शन है जो मनुष्य को आज जानना चाहिए।
परमेश्वर मनुष्य को कैसे सिद्ध बनाता है? परमेश्वर का स्वभाव क्या है? उसके स्वभाव में क्या-क्या पाया जाता है? इन सभी बातों को समझना होगा; यह परमेश्वर के नाम को फैलाना है, यह परमेश्वर की गवाही देना है, और परमेश्वर की प्रशंसा करना है, और मनुष्य परमेश्वर को जानने का आधार अंततः अपने जीवन के स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त करेगा। जितने अधिक व्यवहार और शोधन से मनुष्य होकर जाता है, उतनी ही अधिक उसकी शक्ति होती है और परमेश्वर के कार्य के चरण जितने अधिक होते हैं, उतना ही अधिक मनुष्य सिद्ध बनता है। आज, मनुष्य के अनुभव में, परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण मनुष्य की धारणाओं पर वापस हमले होते हैं, और प्रत्येक चरण मनुष्य की बुद्धि के द्वारा अकल्पनीय होता है, और उसकी उम्मीद से परे होता है। परमेश्वर मनुष्य की प्रत्येक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, और प्रत्येक विषय में मनुष्यों की धारणाओं के विषम होता है, और जब तुम कमज़ोर होते हो, तब परमेश्वर अपने वचनों का उच्चारण करता है; केवल इसी प्रकार से वह तुम्हें जीवन प्रदान कर सकता है। अपनी धारणाओं पर हमला करके, तुम परमेश्वर के साथ व्यवहार को स्वीकार करते हो और केवल इसी प्रकार से तुम अपने भ्रष्टाचार से छुटकारा पा सकते हो। आज, एक सम्बन्ध में देहधारी परमेश्वर दिव्यता में कार्य करता है, और दूसरे सम्बन्ध में, वह सामान्य मानवता में कार्य करता है। तुम्हें परमेश्वर के द्वारा किए गए किसी भी कार्य को इन्कार नहीं करना चाहिए, और जो कुछ परमेश्वर कहे या सामान्य मानवता में करे उसका तुम्हें पालन करना चाहिए, और इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वह कितना सामान्य है, तुम्हें समझना और आज्ञापालन करना चाहिए। एक बार जब तुम्हें वास्तव अनुभव होता है तभी तुम यह जान सकते हो कि यह परमेश्वर है, और धारणाएँ बनाना बंद कर सकते हो और अंत तक उसका अनुसरण कर सकते हो। परमेश्वर के कार्य में ज्ञान होता है, और वह जानता है कि मनुष्य उसकी गवाही किस प्रकार से दे सकता है। वह जानता है कि मनुष्य की सबसे अधिक कमज़ोरी कहाँ है, और उसके कहे वचन तुम्हारी अत्याधिक कमज़ोरी पर सीधे प्रहार कर सकते हैं, परन्तु वह परमेश्वर के तेजस्वी और ज्ञानपूर्ण वचनों का उपयोग तुमसे परमेश्वर की गवाही दिलाने के लिए करता है। परमेश्वर के अद्भुत कार्य ऐसे ही हैं। परमेश्वर के द्वारा किए गए कार्य मनुष्य की बुद्धि के द्वारा अकल्पनीय हैं। परमेश्वर का न्याय मनुष्य के, देह में होने के कारण, भ्रष्टता के प्रकार को और यह प्रकट करता है कि किस प्रकार की बातें मनुष्य के सार में हैं, और यह मनुष्य को अपने शर्म से छिपने की कोई जगह कहीं नहीं छोड़ता।
परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य उसे जाने, और उसकी गवाही को जाने। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव पर परमेश्वर के न्याय के बिना, मनुष्य परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं जानेगा जो कोई भी अपराध की अनुमति नहीं देता है, और परमेश्वर के बारे में अपनी पुरानी जानकारी को नई जानकारी में बदल नहीं सकता है। परमेश्वर की गवाही के लिए, और परमेश्वर के प्रबंधन की ख़ातिर, परमेश्वर अपनी सम्पूर्णता को सार्वजनिक बनाता है, इस प्रकार से मनुष्य को परमेश्वर का ज्ञान हासिल करने, अपने स्वभाव को बदलने, और परमेश्वर के सार्वजनिक प्रकटन के माध्यम से परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम बनाता है। मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन परमेश्वर के विभिन्न कार्यों के द्वारा प्राप्त होता है; मनुष्य के स्वभाव में इस प्रकार के परिवर्तन के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ होगा, और परमेश्वर के हृदय के अनुसार नहीं बन सकता है। मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधनों से मुक्त करा लिया है, अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है और परमेश्वर के कार्य के लिए वास्तव में एक मॉडल और नमूना बन गया है, सचमुच परमेश्वर के लिए गवाह बन गया है और परमेश्वर के हृदय के अनुसार व्यक्ति बन गया है। आज, देहधारी परमेश्वर पृथ्वी पर अपना कार्य करने के लिए आया है, और वह चाहता है कि मनुष्य उसका ज्ञान रखे, आज्ञापालन करे, उसकी गवाही दे - उसके व्यावहारिक और सामान्य कार्य को जाने, उसके सम्पूर्ण वचन और कार्य का पालन करे जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सभी कार्य, और उऩ सभी कार्यों की गवाही दे जो परमेश्वर मनुष्य को जीतने के लिए करता है। जो परमेश्वर के लिए गवाही देते हैं उनके पास परमेश्वर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए; केवल इस प्रकार की ही गवाही यथार्थ और वास्तविक होती है, और केवल इस प्रकार की गवाही ही शैतान को शर्मसार कर सकती है। परमेश्वर उन्हें इस्तेमाल करता है जो उसके न्याय और ताड़ना, व्यवहार और कांट-छांट से गुजर कर उसे जानने आए हैं ताकि परमेश्वर की गवाही दे सकें। वह उनका इस्तेमाल करता है जो शैतान द्वारा भ्रष्ट बना दिए गए हैं ताकि वे पमेश्वर की गवाही दे सकें, और उन्हें भी इस्तेमाल करता है जिनके स्वभाव बदल चुके होते हैं, और जिन्होंने उसकी आशीषें प्राप्त कर ली हों, ताकि उसकी गवाही दे सकें। उसे मनुष्यों की इसलिए जरूरत नहीं है कि वे केवल शब्दों से उसकी तारीफ करें, न ही वह शैतान किस्म के लोगों द्वारा अपनी प्रशंसा और गवाही चाहता है, जो परमेश्वर के द्वारा बचाए न गए हों। जो कोई परमेश्वर को जानते हैं केवल वे उसकी गवाही देने के योग्य हैं और जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हों केवल वे ही उसकी गवाही के लिए योग्य हैं, और परमेश्वर मनुष्य को अनुमति नहीं देगा कि वे जानबूझ कर उसके नाम को शर्मसार करें।
फुटनोटः
अ. मूलपाठ है “परमेश्वर को जानने का कार्य”
ब. मूलपाठ है “अनुसरण कर रहा था/थी”
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