परमेश्वर कहते हैं: "जो लोग मर जाते हैं वे जीवितों की कहानियों को अपने साथ ले जाते हैं और जो जीवित हैं वे मरे हुओं के वही त्रासदीपूर्ण इतिहास को दोहराते रहते हैं।"
केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है
प्रत्येक व्यक्ति यह महसूस करता है कि परमेश्वर का प्रबंधन अजीब है, क्योंकि लोग यह सोचते हैं कि परमेश्वर का प्रबंधन पूरी तरह से मनुष्य से सम्बन्धित नहीं है। वे यह सोचते हैं कि यह प्रबंधन केवल परमेश्वर का ही कार्य है, यह उसी के मतलब का है, और इसलिए मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के प्रति बिल्कुल तटस्थ है। इस प्रकार से, मानवजाति का उद्धार अस्पष्ट और अनिश्चित हो गया है, और अब केवल खाली भाषणबाजी है। हालांकि मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करता है ताकि वह बच जाए और खूबसूरत गंतव्य में प्रवेश कर जाए, मनुष्य को कुछ भी चिंता नहीं है कि परमेश्वर अपना कार्य किस प्रकार से करता है। मनुष्य चिंता नहीं करता कि परमेश्वर की क्या करने की योजना है और बचने के लिए उसे क्या भूमिका अदा करनी होगी। यह कितना दुखद है! मनुष्य का उद्धार परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य से अविभाज्य है, यह परमेश्वर की योजना से अलग तो किया ही नहीं जा सकता है। फिर भी मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य के बारे में कुछ भी नहीं सोचता है, और इस प्रकार से वह परमेश्वर से और भी अधिक दूर होता जाता है। परिणामस्वरूप, अधिकांश लोग परमेश्वर के अनुयायी बनते जा रहे हैं जो उन बातों को नहीं जानते जो मनुष्य के उद्धार के साथ निकट से जुड़ी हुई हैं जैसे कि सृष्टि क्या है, परमेश्वर पर विश्वास करना क्या है, परमेश्वर की आराधना किस प्रकार से करें, इत्यादि। तो इस बिन्दु पर, हमें परमेश्वर के प्रबंधन के बारे में बातचीत करनी चाहिए, ताकि प्रत्येक अनुयायी परमेश्वर का अनुसरण करने और उस पर विश्वास करने के महत्व को स्पष्टता से जान सके। वे उस मार्ग को चुनने के योग्य भी हो सकेंगे जिस पर उन्हें और अधिक सही तरह से चलना चाहिए, केवल आशीषों को प्राप्त करने या आपदा से बचने या सफल होने के ही उद्देश्य से परमेश्वर का अनुसरण न करेंगे।
हालांकि परमेश्वर का प्रबंधन मनुष्य के लिए अति गम्भीर लग सकता है, यह मनुष्य की समझ से बाहर नहीं है, क्योंकि परमेश्वर का सम्पूर्ण कार्य उसके प्रबंधन से जुड़ा हुआ है, यह कार्य मनुष्य के उद्धार के कार्य से जुड़ा हुआ है, और मनुष्य के जीवन, रहन-सहन और गंतव्य से सम्बन्धित है। परमेश्वर मनुष्य में और उनके मध्य जो कार्य करता है, ऐसा कहा जा सकता है कि वह बहुत ही प्रायोगिक और अर्थपूर्ण है। यह मनुष्य के द्वारा देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है, और यह काल्पनिक नहीं है। यदि मनुष्य परमेश्वर के द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य को स्वीकार करने के अयोग्य है, तो इस कार्य का महत्व क्या है? और इस प्रकार का प्रबंधन मनुष्य को उद्धार की ओर किस प्रकार से ले कर जा सकता है? अधिकांश लोग जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वे केवल इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि आशीषों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए या आपदा से कैसे बचा जाए। परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख करने पर वे चुपचाप हो जाते हैं और उनकी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि वे इस प्रकार के कुछ उबाऊ प्रश्नों को जानने से वे अपने जीवन में बढ़ नहीं सकते हैं या किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते हैं, और इसलिए हालांकि वे परमेश्वर के प्रबंधन के संदेश के बारे में सुन चुके होते हैं, वे उन्हें बहुत ही लापरवाही से लेते हैं। उन्हें वे इतने मूल्यवान नहीं लगते कि उन्हें स्वीकारा जाए और वे अपने जीवन का अंग तो उन्हें बिल्कुल नहीं लगते। ऐसे लोगों के पास परमेश्वर का अनुसरण करने का बहुत ही साधारण लक्ष्य होता हैः आशीषें प्राप्त करने का और वे इस लक्ष्य से मतलब न रखने वाली किसी भी बात पर ध्यान देने में बहुत ही आलस दिखाते हैं। उनके लिए, करने का अर्थ आशीषें प्राप्त करने के लिये परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे तर्कसंगत लक्ष्य और उनके विश्वास का आधारभूत मूल्य है। और जो चीज़ें इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता प्रदान नहीं करतीं वे उनसे प्रभावित नहीं होते हैं। आज जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उनके साथ ऐसी ही समस्या है। उनके लक्ष्य और प्रेरणा तर्कसंगत दिखाई देते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर पर विश्वास समय ही, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित भी होते हैं और अपने कर्तव्य को भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी लगा देते हैं, परिवार और भविष्य को त्याग देते हैं, और यहां तक कि सालों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम लक्ष्य के लिये,वे अपनी रूचियों को बदल डालते हैं, अपने जीवन के दृष्टिकोण को परिवर्तित कर देते हैं, और यहां तक कि अपनी खोज की दिशा तक को बदल देते हैं, फिर भी वे परमेश्वर पर अपने विश्वास के लक्ष्य को नहीं बदल सकते। वे अपने ही आदर्शों के लिये भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना ही दूर हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयां और अवरोध क्यों न आएं, वे डटे रहते हैं और मृत्यु के सामने निडर खड़े रहते हैं। इस प्रकार से अपने आप को समर्पित बनाए रखने के लिए उन्हें किस बात से शक्ति प्राप्त होती है? क्या यह उनका विवेक है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह उनका अटल इरादा है जो उन्हें दुष्ट शक्तियों से अंत तक युद्ध करते रहने की प्रेरणा देता है? क्या यह उनका विश्वास है जिसमें वे बिना प्रतिफल के परमेश्वर की गवाही देते हैं? क्या यह उनकी वफादारी है जिसके लिए वे परमेश्वर की इच्छा को प्राप्त करने के लिए सब कुछ देने के लिए भी तैयार रहते हैं? या यह उनकी भक्ति है जिसमें वे हमेशा व्यक्तिगत असाधारण मांगों को त्याग देते हैं? उन लोगों के लिये जिन्होंने कभी भी परमेश्वर के प्रबंधन को जानने के लिए कभी भी इतना कुछ नहीं दिया, यह किसी आश्चर्य से कम नहीं! कुछ देर के लिये आइए इस पर चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। फिर भी उनका व्यवहार इस योग्य है कि हम उसका विश्लेषण करें। उन लाभों के अतिरिक्त जो उनके साथ इतनी निकटतासे जुड़े हैं, क्या इन लोगों के लिए जो कभी भी परमेश्वर को नहीं समझ पाते हैं, उसे इतना कुछ देने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें, हम एक पहले से ही अज्ञात समस्या को देखते हैं: मनुष्य का परमेश्वर के साथ सम्बन्ध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का सम्बन्ध है। सीधे-सीधे, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के सम्बन्ध के समान है। कर्मचारी नियोक्ता के द्वारा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए ही कार्य करता है। इस प्रकार के सम्बन्ध में, कोई स्नेह नहीं होता है, केवल एक सौदा होता है; प्रेम करने और प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होता है; कोई आपसी समझ नहीं होती केवल अधीनता और धोखा होता है; कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक खाई जो कभी भी भरी नहीं जा सकती। जब चीज़ें इस बिन्दु तक आ जाती हैं, तो कौन इस प्रकार की प्रवृत्ति को बदलने में सक्षम है? और कितने लोग इसे वास्तव में समझने के योग्य हैं कि यह सम्बन्ध कितना निराशजनक बन चुका है? मैं मानता हूं कि जब लोग आशीषित होने के आनन्द में अपने आप को लगा देते हैं, तो कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का सम्बन्ध कितना ही शर्मनाक और भद्दा होगा।
परमेश्वर पर मानवजाति की आस्था का सबसे दुखद पहलू यह है कि मनुष्य परमेश्वर के कार्य के मध्य में अपना प्रबंधन चलाता है और परमेश्वर के प्रबंधन के प्रति बेपरवाह रहता है। मनुष्य का सबसे बड़ी असफलता इस बात में है कि किस प्रकार से एक ही समय में परमेश्वर के प्रति समर्पण को खोजते हुए और उसकी आराधना करते हुए, वह कैसे अपने आदर्श गंतव्य का निर्माण करता है और इस गणित में लगा रहता है कि किस प्रकार से बड़ी से बड़ी आशीष और उत्तम गंतव्य को प्राप्त कर सके। अगर लोग इस बात को समझ भी जायें कि वे कितने दयनीय, घृणित और शोचनीय स्थिति में हैं, तो भी ऐसे कितने लोग हैं जो अपने आदर्शों और आशाओं का परित्याग कर सकते हैं? और ऐसा कौन है जो अपने कदमों को थाम ले और केवल अपने ही बारे में सोचना बंद कर दे? परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके साथ निकटता से सहयोग करें और उसके प्रबंधन को पूर्ण करें। उसे ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो उसे समर्पित होने के लिये अपने दिमाग और देह को उसके प्रबंधकारणीय कार्य के लिये अर्पित कर दें; उसे ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है जो अपने हाथ फैलाए खड़े रहें और उससे हर दिन मांगते ही रहें, उसे ऐसे लोग तो बिल्कुल नहीं चाहिए जो थोड़ा-सा कुछ करेंगे और फिर इस बात का इंतज़ार करेंगे कि अब परमेश्वर उनके लिये कुछ करे। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है जो ज़रा-सा कुछ करेंगे और फिर ऐसा दिखलाएंगे जैसे पता नहीं उन्होंने कितना बड़ा काम कर दिया। वह ऐसे नृशंस लोगों से भी घृणा करता है जो उसके प्रबंधकारणीय कार्य को तो पसंद नहीं करते लेकिन हमेशा स्वर्ग जाने और आशीष प्राप्त करने की बातें करते रहते हैं। वह उन लोगों से तो और भी अधिक नफ़रत करता है जो मनुष्य को बचाने के लिये उसके काम से पैदा हुए मौके का फायदा उठाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये लोग इस बात की चिंता कभी नहीं करते कि परमेश्वर अपने प्रबंधकारणीय कार्य के द्वारा क्या प्राप्त और अर्जित करना चाहता है वे केवल परमेश्वर के कार्य के द्वारा उपलब्ध अवसरों का उपयोग करके आशीषें प्राप्त करने के बारे में ही चिंता करते रहते हैं। वे परमेश्वर के हृदय की चिंता नहीं करते, वे पूरी तरह से स्वयं के भविष्य और नियति में व्यस्त रहते हैं। जो लोग परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य को पसंद नहीं करते और उसकी इच्छा और मानवजाति को बचाने के कार्य में ज़रा सा भी दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं, वे परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य से अलग जाकर केवल वही करते हैं जो उन्हें भाता है। परमेश्वर उनके व्यवहार का स्मरण नहीं करता, न उनका अनुमोदन करता है और न ही वह उनके प्रति ज़रा-सा भी अनुकूल भाव दिखाता है।
इस विशाल ब्रह्मांड में ऐसे कितने प्राणी हैं जो सृष्टि के नियम का बार-बार पालन करते हुए, एक ही निरंतर नियम पर चल रहे हैं और प्रजनन कार्य में लगे हैं। जो लोग मर जाते हैं वे जीवितों की कहानियों को अपने साथ ले जाते हैं और जो जीवित हैं वे मरे हुओं के वही त्रासदीपूर्ण इतिहास को दोहराते रहते हैं। मानवजाति बेबसी में स्वयं से पूछती हैः हम क्यों जीवित हैं? और हमें करना क्यों पडता है? यह संसार किसके आदेश पर चलता है? मानवजाति को किसने रचा है? क्या वास्तव में मानवजाति प्रकृति के द्वारा ही रची गई है? क्या मानवजाति वास्तव में स्वयं के भाग्य के नियंत्रण में है?... हज़ारों सालों से मानवजाति ने बार-बार ये प्रश्न किए हैं। दुर्भाग्य से, मानवजाति जितना अधिक इन प्रश्नों के जूनून से घिरती गई, विज्ञान के लिए उसके भीतर उतनी ही अधिक प्यास उत्पन्न होती गई है। देह के लिए विज्ञान संक्षिप्त संतुष्टि और क्षणिक आनन्द प्रदान करता है, परन्तु मानवजाति को तनहाई, अकेलेपन और उसकी आत्मा में छुपे आतंक और गहरी लाचारी को दूर करने के लिए काफी नहीं। मानवजाति ऐसे विज्ञान के ज्ञान का उपयोग महज इसलिए करती है कि नग्न आंखों से देख सके और दिमाग उसके हृदय को चेतनाशून्य कर सके। फिर भी ऐसा वैज्ञानिक ज्ञान मानवजाति को रहस्यों का पता लगाने से रोक नहीं सकता है। मनुष्य नहीं जानता कि ब्रह्मांड की सत्ता किसके पास है, मानवजाति की उत्पत्ति और भविष्य तो वह बिल्कुल नहीं जानता। मानवजाति सिर्फ मजबूरन इन नियमों के अधीन रहती है। न तो इससे कोई बच सकता है और न ही कोई इसे बदल सकता है, क्योंकि इन सबके मध्य और स्वर्ग में केवल एक ही शाश्वत सत्ता है जो सभी पर अपनी सम्प्रभुता रखती है। और ये वह है जिसे कभी भी मनुष्य ने देखा नहीं है, जिसे मानवजाति ने कभी जाना नहीं है, जिसके अस्तित्व में मनुष्य ने कभी भी विश्वास नहीं किया, फिर भी वही एक है जिसने मानवजाति के पूर्वजों को श्वास दी और मानवजाति को जीवन प्रदान किया। वही मानवजाति के अस्तित्व के लिए आपूर्ति और पोषण प्रदान करता है, और आज तक मानवजाति को मार्गदर्शन प्रदान करता आया है। इसके अलावा, उसी और सिर्फ़ उसी पर मानवजाति अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करती है। इस ब्रह्माण्ड में उसी की सत्ता है और हर प्राणी पर उसी का शासन है। वह चारों मौसमों पर उसी का अधिकार है और वही वायु, शीत, बर्फ और बरसात संचालित करता है। वही मानवजाति को धूप प्रदान करता है और रात्रि लेकर आता है। उसी ने स्वर्ग और पृथ्वी की नींव डाली, मनुष्य को पहाड़, झील और नदियां तथा उसमें जीवित प्राणी उपलब्ध कराए। उसके कार्य सभी जगह हैं, उसकी सामर्थ्य सभी जगह है, उसका ज्ञान चारों ओर है, और उसका अधिकार भी सभी जगह है। प्रत्येक नियम और व्यवस्था उसी के कार्य का मूर्त रूप है, और उनमें से प्रत्येक उसकी बुद्धि और अधिकार प्रगट करता है। कौन है जो उसके प्रभुत्व से बच सकता है? कौन है जो उसकी रूपरेखा से मुक्त रह सकता है? प्रत्येक चीज़ उसकी निगाह में है और सभी कुछ उसकी अधीनता में है उसके कार्य और शक्ति मनुष्य के पास सिवाय यह मानने के और कोई विकल्प नहीं छोड़ते कि वास्तव में उसका अस्तित्व है और हर चीज़ पर उसी का अधिकार है। उसके अलावा कोई और ब्रह्मांड को नियंत्रित नहीं कर सकता, उसके अलावा कोई और तो मानवजाति को अथक पोषण तो प्रदान कर ही नहीं कर सकता। इस बात से परे कि चाहे तुम परमेश्वर के कार्यों को पहचानन के योग्य हो या नहीं और परमेश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करते हो या नहीं, इसमें कोई संदेह नहीं है कि तुम्हारा भाग्य परमेश्वर के विधान के अंतर्गत ही रहता है, और इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि परमेश्वर प्रत्येक चीज़ पर अपनी सम्प्रभुता बनाए रखेगा। उसका अस्तित्व और अधिकार कभी भी किसी चीज़ पर आधारित नहीं होते हैं चाहे वे मनुष्य के द्वारा पहचाने और समझे जाएं या नहीं। केवल वही मनुष्यों के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानता है और वही केवल मानवजाति के भाग्य को निर्धारित कर सकता है। इस बात से परे कि तुम इस सत्य को स्वीकारने के योग्य हो अथवा नहीं, अब ज्यादा समय नहीं रह गया है कि मानवजाति स्वयं अपनी आंखों से इन बातों की गवाही देगी और यह सत्य है कि परमेश्वर इसे जल्द ही पूरा करेगा। मानवजाति परमेश्वर की निगाह तले जीवित रहती और समाप्त हो जाती है। मानवजाति परमेश्वर के प्रबंधन में रहती है और जब उसकी आंखें अंतिम समय में बंद हो जाती हैं, तो वह भी उसी के प्रबंधन में होता है। बार-बार, मनुष्य आता-जाता रहता है। बिना अपवाद के, यह सब कुछ परमेश्वर के प्रारूप और सम्प्रभुता का भाग है। परमेश्वर का प्रबंधन निरंतर आगे बढ़ता रहता है और कभी रुका नहीं है। वह मानवजाति को अपने अस्तित्व से अवगत कराएगा, अपनी सम्प्रभुता पर विश्वास कराएगा, अपने कार्यों को दिखाएगा, और अपने राज्य में वापस लाएगा। यही उसकी योजना है, और यही वह कार्य है जो वह हज़ार सालों से करता आ रहा है।
परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य संसार की उत्पत्ति से प्रारम्भ हुआ था और मनुष्य उसके कार्य का मुख्य बिन्दु है। ऐसा कह सकते हैं कि परमेश्वर की सभी चीज़ों की सृष्टि, मनुष्य के लिए ही है। क्योंकि उसके प्रबंधन का कार्य हज़ारों सालों से अधिक में फैला हुआ है, और यह केवल एक ही मिनट या सेकंड में या पलक झपकते या एक या दो सालों में पूरा नहीं होता है, उसे मनुष्य के अस्तित्व के लिए बहुत-सी आवश्यक चीज़ों का निर्माण करना पड़ा जैसे सूर्य, चंद्रमा, सभी जीवों का सृजन और मानवजाति के लिए आहार और रहने योग्य पर्यावरण। यही परमेश्वर के प्रबंधन का प्रारम्भ था।
इसके बाद, परमेश्वर ने मनुष्य को शैतान के हाथों में सौंप दिया, मनुष्य शैतान की प्रभुता के अधीन रहने लगा और यहीं से परमेश्वर के कार्य का प्रथम युग आरंभ हुआ: व्यवस्था के युग की कहानी... व्यवस्था के युग के हज़ारों सालों के दौरान, मानवजाति व्यवस्था के युग के मार्गदर्शन की आदी हो गई, और वह इसे हल्के तौर पर लेने लगी और धीरे-धीरे परमेश्वर की देखभाल से दूर हो गई। और इस तरह, उसी दौरान व्यवस्था से जुड़ी रहते हुए, मूर्तिपूजा और कुकृत्य भी करने लगी। वे यहोवा की सुरक्षा से वंचित थे, और केवल मंदिर की वेदी के सामने अपना जीवनयापन कर रहे थे। वास्तव में, परमेश्वर का कार्य उन्हें काफी समय पहले छोड़ चुका था, और हालांकि इस्राएली नियमों से अभी भी चिपके हुए थे, और यहोवा का नाम लेते थे, और घमण्ड से विश्वास करते थे कि वे ही केवल यहोवा के लोग हैं और यहोवा के चुने हुए लोग हैं, लेकिन परमेश्वर की महिमा उन्हें चुपचाप छोड़कर जा चुकी थी...
जब परमेश्वर अपना कार्य करता है, तो वह एक स्थान को चुपचाप छोड़कर चल देता है जबकि धीरे से दूसरे स्थान पर अपना नया कार्य प्रारम्भ कर देता है। यह उन लोगों को अविश्वसनीय लगता है, जो सुन्न बने रहते हैं। लोग हमेशा पुरानी बातों को सम्भाल कर रखते हैं और नई, अपरिचित बातों से शत्रुता रखते हैं या उन्हें बाधा मानते है। इसलिए, जो कुछ भी नया कार्य परमेश्वर करता है, प्रारम्भ से अंत तक, मनुष्य ही सबसे अंत में इन सब बातों को जान पाता है।
जैसा कि हमेशा होता रहा है, व्यवस्था के युग में यहोवा के कार्य के बाद, परमेश्वर ने दूसरे चरण का अपना कार्य प्रारम्भ किया: देह-धारण कर, दस, बीस साल के लिए मनुष्य के समान अवतरण लेकर, विश्वासियों के मध्य बातचीत करते हुए अपना कार्य किया। फिर भी बिना किसी अपवाद के, कोई भी नहीं जान पाया और प्रभु यीशु को क्रूस पर लटकाने और उसके पुनर्जीवित होने के बाद बहुत थोड़े से लोगों ने इस बात को माना कि वह परमेश्वर था जो देहधारण करके आया था। समस्या का विषय ये रहा कि एक पौलुस नाम का व्यक्ति प्रगट हुआ, जिसने परमेश्वर के साथ कट्टर शत्रुता पाल ली। हालांकि गिराए जाने के बाद वह प्रेरित बनकर भी, पौलुस का पुराना स्वभाव परिवर्तित नहीं हुआ और उसने कई धर्म-पत्रियां लिखीं। दुर्भाग्य से, बाद की पीढ़ियों ने उन धर्मपत्रियों आनन्द लेने के लिए परमेश्वर के वचन के तौर पर लिया, और वह भी इस हद तक कि उन्हें नए नियम में शामिल कर लिया और उन्हें परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचन मान कर भ्रमित हो गए। धर्मग्रंथ के आगमन के बाद से यह एक बड़ा अपमान है। और क्या यह गलती मनुष्य की मूर्खता की वजह से नहीं हुई थी? उन्हें यह बात ज्ञात नहीं थी कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य के अभिलेख में, मनुष्यों के द्वारा लिखित धर्मपत्रियां या आध्यात्मिक लेख परमेश्वर के कार्य और वचन के रूप में नहीं होने चाहिए थे। परन्तु यह बिन्दु से हटकर है, इसलिए आओ हम अपने मूल विषय पर लौटें। जैसे ही परमेश्वर के कार्य का दूसरा चरण पूर्ण हुआ–सूली पर चढ़ाने के बाद-परमेश्वर का मनुष्यों को पाप से बचाने का कार्य (अर्थात मनुष्यों को शैतान की अधीनता से छुड़ाना) पूर्ण किया गया। इसलिए, उस क्षण के बाद से, मानवजाति को प्रभु यीशु को उसके पापों की क्षमा के लिये उद्धारकर्ता के तौर पर स्वीकार करना ही पड़ा। नाममात्र को कहने के लिए, अब मनुष्य के पाप उसके उद्धार को प्राप्त करने और परमेश्वर के सामने आने के लिए अवरोध नहीं रह गए थे और न ही शैतान द्वारा मनुष्य को दोषी ठहराने का लाभ उठाने के लिये रह गए थे। इसका कारण यह है कि परमेश्वर ने स्वयं वास्तविक कार्य किया था, वह उनके जैसा बन गया था और उसने स्वयं पापमय देह का स्वाद चखा था, और परमेश्वर स्वयं पाप बलि बन कर आया। इस प्रकार से, परमेश्वर की देह और देह की समानता की बदौलत मनुष्य क्रूस पर से उतारा गया, छुड़ाया गया एवं बचाया गया। इसलिए, शैतान के द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद, मनुष्य परमेश्वर के सामने उद्धार को ग्रहण करने के लिए एक कदम पास आया। बेशक, कार्य का यह चरण परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य था जो एक कदम आगे था और व्यवस्था के युग से गहरा स्तर था।
परमेश्वर का प्रबंधन इस प्रकार से है: मानवजाति को शैतान की अधीनता में देना-एक ऐसी मानवजाति जो नहीं जानती कि परमेश्वर क्या है, रचयिता क्या है, परमेश्वर की आराधना किस प्रकार की जानी है, और परमेश्वर के अधीन होना क्यों आवश्यक है-और शैतान की भ्रष्टता को उन्मुक्त लगाम देना। और फिर कदम दर कदम, परमेश्वर शैतान के हाथों से मनुष्य को बचाता है, जब तक कि मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर की आराधना न करे और शैतान को अस्वीकार न कर दे। यही परमेश्वर का प्रबंधन है। यह सब कुछ एक मिथककथा लगती है; और यह सब कुछ हैरान कर देने वाला लगता है। लोगों को लगता है कि ये एक मिथक कथा है, और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्हें इसका भान नहीं है कि पिछले हज़ारों सालों में लोगों के साथ कितना कुछ हुआ है, और इस बात को तो वे बिल्कुल नहीं जानते कि इस ब्रह्मांड के विस्तार में अब तक कितनी कहानियां घट चुकी हैं। इसके अलावा, ऐसा इसलिए कि वे इस बात को नहीं समझ सकते कि भौतिक संसार के परे एक अधिक आश्चर्यजनक अधिक भययुक्त संसार का अस्तित्व है, परन्तु उनकी नश्वर आंखें देखने से उन्हें वंचित करती हैं। इंसान को वह अबोधगम्य लगती है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य को मानवजाति के लिए परमेश्वर के द्वारा किए गए उद्धार के कार्य की महत्ता और परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य की महत्ता की समझ नहीं है, और वह यह नहीं समझता कि परमेश्वर अंततः मनुष्य को कैसा बनते देखना चाहता है। क्या शैतान के दोष से रहित आदम और हव्वा के समान? नहीं! परमेश्वर का प्रबंधन लोगों के एक ऐसे समूह को प्राप्त करने के लिए है जो उसकी आराधना करे और उसके अधीन रहे। ये मानवजाति शैतान के द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, परन्तु अब शैतान को पिता के तौर पर नहीं देखती; वह शैतान के बुरे चेहरे को पहचानता है और उसे अस्वीकार करता है और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने के लिये उसके सामने आता है। वह जानता है कि क्या बुरा है, और जो पवित्र है उसके विपरीत वह कैसा दिखता है, और वह परमेश्वर की महानता को पहचानता है और शैतान की दुष्टता को भी समझता है। इस प्रकार की मानवजाति अब शैतान के लिए कार्य नहीं करती है, या उसकी आराधना नहीं करती है, या शैतान को प्रतिष्ठित नहीं करती है। इसका कारण यह है कि यह एक ऐसे लोगों का समूह है जो वास्तव में परमेश्वर को प्राप्त हो गए हैं। यही परमेश्वर की मानवजाति के प्रबंधन की महत्ता है। इस समय में परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य के दौरान, मानवजाति शैतान की भ्रष्टता का लक्ष्य है, और इसी दौरान परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य भी है, साथ ही साथ परमेश्वर और शैतान के मध्य युद्ध का सामान भी। साथ ही इसी दौरान अपना कार्य करते हुए, परमेश्वर मनुष्य को शैतान के चंगुल से धीरे-धीरे बचाता है और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के निकट आता जाता है...
और इसके बाद परमेश्वर के राज्य का युग आया, जो कि कार्य का और भी अधिक व्यवहारिक चरण है और मनुष्य के लिए उसे स्वीकार करना सबसे कठिन भी। वजह यह है कि जितना अधिक मनुष्य परमेश्वर के नज़दीक आता है, परमेश्वर की छड़ी इंसान के उतने ही करीब पहुँचती है और मनुष्य के सामने परमेश्वर का चेहरा उतना ही अधिक स्पष्ट होता जाता है। मानवजाति के छुटकारे के साथ मनुष्य औपचारिक तौर पर परमेश्वर के परिवार में लौट आता है। मनुष्य ने सोचा कि अब आनन्द का समय आया है, फिर भी वह पूरी तरह से परमेश्वर के ऐसे आक्रमण का सामना करने के लिए अधीन है जैसा कि कभी किसी ने नहीं देखा। लेकिन हुआ ऐसा कि, यह एक बपतिस्मा है जिससे परमेश्वर के लोगों को "आनन्द" लेना है। इस प्रकार के व्यवहार में, लोगों के पास ठहरकर सोचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता, मैं, कई सालों तक खोया हुआ एक मेमना हूं, जिसे वापस पाने के लिए परमेश्वर ने कितना कुछ खर्च किया है, तो परमेश्वर मुझसे इस प्रकार का व्यवहार क्यों करता है? क्या यह परमेश्वर का मुझ पर हंसने का, और मुझे प्रगट करने का तरीका है?... बरसों बीत जाने के बाद, मनुष्य शोधन और ताड़ना की कठिनाइयाँ सह-सहकर सिर्फ़ जीर्ण-शीर्ण हो कर रह गया है, हालांकि मनुष्य ने अतीत की "महिमा" और "प्रणय" को खो दिया है, उसने अनजाने में मनुष्य होने के सत्य को समझ लिया है, और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सालों के समर्पण को भी समझ गया है। मनुष्य धीरे-धीरे स्वयं की बर्बरता से घृणा करने लगता है। वह अपनी असभ्यता से घृणा करने लगता है, और परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की गलतफहमियों से तथा उन सभी अनुचित मांगों से भी वह घृणा करने लगता है जो वह परमेश्वर से करता रहा है। समय को वापस नहीं लाया जा सकता है; अतीत की घटनाएं मनुष्य के लिए पछतावा करने वाली यादें बनकर रह जाती हैं, और परमेश्वर के वचन और प्रेम मानव के लिए नए जीवन की प्रेरणा शक्ति बन जाते हैं। मनुष्य के घाव दिन प्रतिदिन भरते जाते हैं, उसकी सामर्थ्य वापस आने लगती है, और वह खड़ा होता है और सर्वशक्तिमान के चेहरे की ओर देखने लगता है...उसे तभी पता चलता है कि परमेश्वर हमेशा से मेरे साथ रहा है और उसकी मुस्कान और सुन्दर चेहरा अभी भी बहुत जोशीला है। उसके हृदय में अभी भी अपने द्वारा रची गई मानवजाति के लिए चिंता रहती है, और उसके हाथों भी अभी भी वही गर्मी और शक्ति है जो आरंभ में थी। जैसे कि मानव अदन के बाग में लौट आया हो, लेकिनफिर भी इस बार मनुष्य सांप के प्रलोभनों को नहीं सुनता है, यहोवा के चेहरे से दूर नहीं जाता है। मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है, परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है, और उसे अपनी सबसे प्रिय भेंट चढ़ाता है-ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!
परमेश्वर का प्रेम और दया उसके प्रबंधकारणीय कार्य के हर ब्यौरे में व्याप्त होती है और इससे निरपेक्ष कि लोग परमेश्वर की भली मंशा को समझ पा रहे हैं या नहीं, वह अभी भी अथक रूप से अपने कार्य में लगा हुआ है जो वह पूरा करना चाहता है। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर के प्रबंधन को लोग कितना समझ रहे हैं, परमेश्वर जो कार्य कर रहा है, उसके लाभ और सहायता को हर व्यक्ति भलीभाँति समझ सकता है। भले ही आज तुम परमेश्वर के द्वारा प्रदत्त प्रेम या जीवन को महसूस नहीं कर पा रहे हो, परन्तु जब तक तुम परमेश्वर को न छोड़ो, और सत्य को खोजने के अपने इरादों को न छोड़ो, तो एक न एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब परमेश्वर की मुस्कान तुम पर प्रगट होगी। क्योंकि परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य का लक्ष्य शैतान के चंगुल में फंसी हुई मानवजाति को उबारना है, न कि मानवजाति को छोड़ना है जो शैतान के द्वारा भ्रष्ट हो चुकी है और परमेश्वर के विरूद्ध खड़ी हुई है।
सितम्बर 23, 2005 को व्यक्त किया गया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें