V. अंतिम दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य और अनुग्रह के युग में उसके छुटकारे के कार्य के बीच रहे अंतर से सम्बंधित सत्य के पहलू पर हर किसी को अवश्य गवाही देनी चाहिए
3. अनुग्रह के युग की तुलना में राज्य के युग में, कलीसियाई जीवन में क्या अंतर है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"जब वे खा रहे थे तो यीशु ने रोटी ली, और आशीष माँगकर तोड़ी, और चेलों को देकर कहा, 'लो, खाओ; यह मेरी देह है।' फिर उसने कटोरा लेकर धन्यवाद किया, और उन्हें देकर कहा, 'तुम सब इसमें से पीओ, क्योंकि यह वाचा का मेरा वह लहू है, जो बहुतों के लिये पापों की क्षमा के निमित्त बहाया जाता है'" (मत्ती 26:26-28)।
"मैं ने स्वर्गदूत के पास जाकर कहा, 'यह छोटी पुस्तक मुझे दे।' उसने मुझ से कहा, 'ले, इसे खा ले; यह तेरा पेट कड़वा तो करेगी, पर तेरे मुँह में मधु सी मीठी लगेगी'" (प्रकाशितवाक्य 10:9)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
जब, अनुग्रह के युग में, परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में लौटा, तो समस्त मानव जाति के छुटकारे का परमेश्वर का कार्य वास्तव में पहले से ही अपनी समापन की क्रिया में चला गया था। धरती पर जो कुछ भी शेष रह गया था वह था सलीब जिसे यीशु ने ढोया था, बारीक सन का कपड़ा जिसमें यीशु को लपेटा गया था, और काँटों का मुकुट और लाल रंग का लबादा जो यीशु ने पहना था (ये वे वस्तुएँ थीं जिन्हें यहूदियों ने उसका मज़ाक उड़ाने के लिए उपयोग किया था)। अर्थात्, यीशु के सलीब पर चढ़ने का कार्य एक समय के लिए कोहराम का कारण बना था और फिर शांत हो गया था। तब से, यीशु के शिष्यों ने, कलीसियाओं में चरवाही करते हुए और सींचते हुए, हर कहीं उसके कार्य को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। उनके कार्य की विषय-वस्तु यह थी: सभी लोगों से पश्चाताप करवाना, उनके पापों को स्वीकार करवाना और बपतिस्मा दिलवाना; सभी प्रेरितों ने यीशु के सलीब पर चढ़ने की अंदर की कहानी को और जो वास्तव में हुआ था उसे फैलाया, हर कोई सहायता करने में समर्थ नहीं हो पाने बल्कि अपने पापों को स्वीकार करने के लिए यीशु के सामने गिर गया, और इसके अलावा प्रेरित सभी जगह उन वचनों को जो यीशु ने बोले थे और व्यवस्थाओं और आज्ञाओं को जो उसने स्थापित की थी, फैला रहे थे। उस क्षण से अनुग्रह के युग में कलीसियाओं का निर्माण होना शुरू हुआ। … उस प्रकार का कार्य और वे वचन आज तक जारी हैं, और यही कारण है कि आज की धार्मिक कलीसियाओं में अभी भी जो कुछ साझा किया जाता है वह उसी प्रकार की चीज है और सर्वथा अपरिवर्तित है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (6)" से
मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और तब किया जाता है जब पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। ऐसे मनुष्य द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन यह होता है कि मनुष्य के दैनिक जीवन में किस प्रकार अभ्यास किया जाए और मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। … की अगुआई करना था। चाहे मार्ग नया हो या पुराना, कार्य बाइबल के सिद्धांतों से अधिक नहीं बढ़ने के आधार पर किया गया था। चाहे स्थानीय कलीसियाओं को पुनर्स्थापित किया गया हो अथवा बनाया गया हो, उनका कार्य कलीसियाओं की स्थापना करना था। जो कार्य उन्होंने किया उसने उस कार्य को आगे बढ़ाया जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने समाप्त नहीं किया था या अनुग्रह के युग में आगे विकसित नहीं किया था। उन्होंने अपने कार्य में जो कुछ किया, वह उसे बहाल करना था जिसे यीशु ने अपने कार्य में अपने बाद की पीढ़ियों से कहा था, जैसे कि अपने सिरों को ढक कर रखना, बपतिस्मा, रोटी साझा करना या वाइन पीना। यह कहा जा सकता है कि उनका कार्य केवल बाइबल का पालन करना था और केवल बाइबल के भीतर से मार्ग तलाशना था। उन्होंने कोई भी नई प्रगति बिल्कुल नहीं की। इसलिए, कोई उनके कार्य में केवल बाइबल के भीतर ही नए मार्गों की खोज, और साथ ही बेहतर और अधिक यथार्थवादी अभ्यासों को देख सकता है। किन्तु कोई उनके कार्य में परमेश्वर की वर्तमान इच्छा को नहीं खोज सकता है, उस कार्य को तो बिल्कुल नहीं खोज सकता है जिसे परमेश्वर अंत के दिनों में करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस मार्ग पर वे चलते थे वह तब भी पुराना था; उसमें कोई प्रगति नहीं थी और कुछ नया नहीं था। उन्होंने "यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने" की वास्तविकता का पालन करना, "लोगों को पश्चाताप करने और अपने पापों को स्वीकार करने के लिए कहने" के अभ्यास, और इस उक्ति "जो अन्त तक सहन करता है बचा लिया जाएगा" और इस उक्ति "पुरुष स्त्री का सिर है" और "स्त्री को अपने पति का आज्ञापालन करना चाहिए" के अभ्यास को जारी रखा। इसके अलावा, उन्होंने परंपरागत धारणा को बनाए रखा कि "बहनें उपदेश नहीं दे सकती हैं, और वे केवल आज्ञापालन कर सकती हैं।"
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (1)" से
जिसके विषय में तुम लोग बात करते हो वह पुरानी अप्रचलित चीज़ है! यह या तो सिंहासन पर विराजमान होना है, या एक राजा बनने के डील-डौल को तैयार करना है; या तो स्वयं का इन्कार करना है या अपनी देह को वश में लाना है; या तो धीरजवान बनना है या सभी चीज़ों से शिक्षाएं लना है; या विनम्रता है या प्रेम। क्या यह उसी पुराने धुन को गाने के समान नहीं है? यह तो बस उसी चीज़ को अलग अलग नाम से पुकारने जैसा है! या तो अपने सिर को ढंकना और रोटी तोडना, या हाथ रखना और प्रार्थना करना, तथा बीमारों को चंगा करना और दुष्ट आत्माओं को निकलना। क्या कोई नया कार्य हो सकता है? क्या विकास की कोई संभावना हो सकती है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में" से
उदाहरण के लिए, इस धार्मिक संसार में पास्टर एवं अगुवे अपने कार्य को करने के लिए अपने वरदानों एवं पदों पर भरोसा रखते हैं। ऐसे लोग जो लोग लम्बे समय से उनका अनुसरण करते हैं वे उनके वरदानों के द्वारा संक्रमित हो जाएंगे और जो वे हैं उनमें से कुछ के द्वारा उन्हें प्रभावित किया जाएगा। वे लोगों के वरदानों, योग्यताओं एवं ज्ञान पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, और वे कुछ अलौकिक कार्यों और अनेक गम्भीर अवास्तविक सिद्धान्तों पर ध्यान देते हैं (हाँ वास्तव में, इन गम्भीर सिद्धान्तों को हासिल नहीं किया जा सकता है)। वे लोगों के स्वभाव के परिवर्तनों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, किन्तु इसके बजाए वे लोगों के प्रचार एवं कार्य करने की योग्यताओं को प्रशिक्षित करने, और लोगों के ज्ञान एवं समृद्ध धार्मिक सिद्धान्तों को बेहतर बनाने के ऊपर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे इस पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं कि लोगों के स्वभाव में कितना परिवर्तन हुआ है या इस पर कि लोग सत्य को कितना समझते हैं। वे लोगों के मूल-तत्व के साथ अपने आपको नहीं जोड़ते हैं, और वे लोगों की सामान्य एवं असमान्य दशाओं को जानने की कोशिश तो बिलकुल भी नहीं करते हैं। वे लोगों की धारणाओं का विरोध नहीं करते हैं या उनकी धारणाओं को प्रगट नहीं करते हैं, और वे अपनी कमियों या भ्रष्टता में सुधार तो बिलकुल भी नहीं करते हैं। अधिकांश लोग जो उनका अनुसरण करते हैं वे अपने स्वाभाविक वरदानों के द्वारा सेवा करते हैं, और जो कुछ वे अभिव्यक्त करते हैं वह ज्ञान एवं अस्पष्ट धार्मिक सत्य है, जिनका वास्तविकता के साथ कोई नाता नहीं है और वे लोगों को जीवन प्रदान में पूरी तरह से असमर्थ हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, वे पूछते हैं, "बहन, इन दिनों तुम कैसी रही हो?" वह उत्तर देती है, "मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस करती हूँ और कि मैं उसके हृदय की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ हूँ।" दूसरी कहती है, "मैं भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ और उसे संतुष्ट करने में असमर्थ हूँ।" ये कुछ वाक्य और वचन अकेले ही उनके हृदयों की गहराई की अधम चीजों को व्यक्त करते हैं। ऐसे वचन अत्यधिक घृणित और अत्यंत अरुचिकर हैं। ऐसे मनुष्यों की प्रकृति परमेश्वर का विरोध करती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करते हैं वे वही संचारित करते हैं जो उनके हृदयों में होता है और संवाद में अपने हृदय को खोल देते हैं। उनमें एक भी झूठा श्रम, कोई शिष्टताएँ या खोखली मधुर बातें नहीं होती है। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी पार्थिव नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें, बिना किसी समझ के, बाह्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है। जब कोई दूसरा गाता है, तो वह नाचने लगता है, यहाँ तक कि यह समझे बिना कि उसके बरतन का चावल पहले से ही जला हुआ है। लोगों के इस प्रकार के चाल-चलन धार्मिक या सम्माननीय नहीं हैं, और बहुत ही तुच्छ हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्तियाँ है! कुछ आत्मा में जीवन के मामलों के बारे में संगति के लिए इकट्ठा होते हैं, और यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते हैं, फिर भी वे अपने हृदयों में उसके प्रति एक सच्चे प्यार को कायम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरों से कोई लेना देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि किसी मनुष्य के प्रति। इसलिए इस बारे में लगातार दूसरों से कहना तुम्हारे किस उपयोग का है? तुम्हें अवश्य सच्चाई में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर पर विश्वास करना वास्तविकता पर केंद्रित होना चाहिए, न कि धार्मिक रीति-रिवाजों पर" से
परमेश्वर का अनुसरण करने में प्रमुख महत्व इस बात का है कि हर चीज परमेश्वर के वास्तविक वचनों के अनुसार होनी चाहिए: चाहे तुम जीवन में प्रवेश कर रहे हो या परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति, सब कुछ परमेश्वर के वास्तविक वचनों के आस-पास ही केंद्रित होना चाहिए। यदि तुम्हारा समागम और अनुसरण परमेश्वर के वास्तविक शब्दों के आसपास केंद्रित नहीं होते हैं, तो तुम परमेश्वर के शब्दों के लिए एक अजनबी हो, और पवित्र आत्मा के कार्य से पूरी तरह से वंचित हो। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके पदचिन्हों का अनुसरण करें। भले ही जो तुमने पहले समझा था वह कितना ही अद्भुत और शुद्ध क्यों न हो, परमेश्वर उसे नहीं चाहता है, और यदि तुम ऐसी चीजों को अलग नहीं कर सकते, तो वे भविष्य में तुम्हारे प्रवेश के लिए एक बड़ी बाधा होंगी। वे सभी धन्य हैं जो पवित्र आत्मा के वर्तमान प्रकाश का अनुसरण करने में सक्षम हैं। … "पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण" करने का मतलब है आज परमेश्वर की इच्छा को समझना, परमेश्वर की वर्तमान अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने में सक्षम होना, आज के परमेश्वर का अनुसरण और आज्ञापालन करने में सक्षम होना, और परमेश्वर के नवीनतम कथनों के अनुसार प्रवेश करना। केवल ऐसा व्यक्ति ही है जो पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करता है और पवित्र आत्मा की धारा में है। ऐसे लोग न केवल परमेश्वर की सराहना प्राप्त करने और परमेश्वर को देखने के लिए सक्षम हैं, बल्कि परमेश्वर के नवीनतम कार्य से परमेश्वर के स्वभाव को भी जान सकते हैं, और मनुष्य की अवधारणाओं और अवज्ञा को, मनुष्य के प्रकृति और सार को भी, परमेश्वर के नवीनतम कार्य से जान सकते हैं; इसके अलावा, वे अपनी सेवा के दौरान धीरे-धीरे अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने में सक्षम होते हैं। केवल ऐसे लोग ही हैं जो परमेश्वर को प्राप्त करने में सक्षम हैं, और जो वास्तव में सही राह को हासिल कर चुके हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और परमेश्वर के चरण-चिन्हों का अनुसरण करो" से
जब आप परमेश्वर के लिए गवाही देते हैं, तो आपको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करते हैं और लोगों को कैसे दंड देते हैं, मनुष्यों का शुद्धिकरण करने और मनुष्यों के स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करते हैं, आपने कितना सहन किया है, आपके भीतर कितने विद्रोह और भ्रष्टाचार का पता चला है, और आपने किन तरीकों से परमेश्वर का विरोध किया है। फिर आप इस बारे में बात कर सकते हैं कि आखिरकार परमेश्वर ने कैसे आपको जीता था और आपको इसका बदला परमेश्वर को कैसे चुकाना चाहिए। इस प्रकार की भाषा में तत्व डालें, इसे सरल तरीके से प्रस्तुत करें, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात नहीं करें। तत्व के बारे में बात करें, हृदय से बोलें, यह आपके अनुभव के लिए पर्याप्त होता है। अलंकरण के रूप में बहुत अधिक प्रत्यक्ष गहराई वाले खोखले सिद्धांतों को तैयार नहीं करें। यह बहुत अहंकारी और मूर्खतापूर्ण लगेगा। वास्तविकता वाले व्यावहारिक अनुभवों से सच के बारे में ज्यादा बोलें, अपने हृदय से वचनों के बारे में बोलें। वे ही हैं जिनसे लोगों को सबसे अधिक लाभ होता है और जो लोगों के लिए सबसे अधिक उपयुक्त होते हैं। आप परमेश्वर के सबसे कट्टर विरोधी थे, परमेश्वर के सबसे अवज्ञाकारी, लेकिन आज आप जीत लिए गए हैं, इसे कभी नहीं भूलें। इस प्रकार के मामलों में अनवरत विचार की आवश्यकता होती है। इन चीजों पर अधिक देर तक विचार करें, ऐसा न हो कि आप और अधिक बेशर्म और मूर्खतापूर्ण कृत्य कर बैठें।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "बुनियादी ज्ञान जो मनुष्य के पास होना चाहिए" से
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