2018/08/26

छुटकारे के युग में कार्य के पीछे की सच्ची कहानी

यीशु, परमेश्वर, उद्धार, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन—छुटकारे के युग में कार्य के पीछे की सच्ची कहानी
मेरी सम्पूर्ण प्रबन्धन योजना, ऐसी योजना जो छः हज़ार सालों तक फैली हुई है, तीन चरणों या तीन युगों को शामिल करती हैः आरंभ में व्यवस्था का युग; अनुग्रह का युग (जो छुटकारे का युग भी है); और अंत के दिनों में राज्य का युग। प्रत्येक युग की प्रकृति के अनुसार मेरा कार्य इन तीनों युगों में तत्वतः अलग-अलग है, परन्तु प्रत्येक चरण में यह मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप है—या बल्कि, अधिक स्पष्ट कहें तो, यह उन छलकपटों के अनुसार किया जाता है जो शैतान उस युद्ध में काम में लाता है जो मैं उसके विरुद्ध शुरू करता हूँ। मेरे कार्य का उद्धेश्य शैतान को हराना, अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को व्यक्त करना, शैतान के सभी छलकपटों को उजागर करना और परिणामस्वरूप समस्त मानवजाति को बचाना है, जो उसके अधिकार क्षेत्र के अधीन रहती है। यह मेरी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को दिखाने के लिए है जबकि उसके साथ-साथ ही शैतान की असहनीय करालता को प्रकट करती है। इससे भी अधिक, यह मेरी रचनाओं को अच्छे और बुरे के बीच में अन्तर करना सिखाने के लिए है, यह पहचानना सिखाने के लिए है कि मैं सभी चीज़ों का शासक हूँ, यह देखना सिखाने के लिए है कि शैतान मानवजाति का शत्रु है, व अधम से भी अधम है, दुष्ट है, और अच्छे एवं बुरे, सत्य एवं झूठ, पवित्रता एवं गन्दगी, और महान और हेय के बीच पूर्ण निश्चितता के साथ अंतर करना सिखाने के लिए है। इस तरह, अज्ञानी मानवजाति मेरी गवाही देने में समर्थ हो सकती है कि वह मैं नहीं हूँ जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है, और केवल मैं—सृष्टि का प्रभु—ही मानवजाति को बचा सकता हूँ, मनुष्य को उसके आनन्द की वस्तुएँ प्रदान कर सकता हूँ; और उन्हें पता चल जाएगा कि मैं सभी चीज़ों का शासक हूँ और शैतान मात्र उन प्राणियों में से एक है जिनकी मैंने रचना की है और जो बाद में मेरे विरूद्ध हो गया। मेरी छः-हज़ार-सालों की प्रबंधन योजना को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है ताकि निम्नलिखित प्रभाव को प्राप्त किया जाए: मेरी रचनाओं को मेरा गवाह बनने में सक्षम बनाना, मेरी इच्छा को समझना, और यह जानना कि मैं ही सत्य हूँ। इस प्रकार, मेरी छः-हज़ार-सालों की प्रबन्धन योजना के आरम्भिक चरण के दौरान, मैंने व्यवस्था का काम किया, जो कि ऐसा कार्य था जिसमें यहोवा ने अपने लोगों की अगुवाई की। दूसरे चरण में यहूदिया के गाँवों में अनुग्रह के युग के कार्य को आरम्भ किया गया। यीशु अनुग्रह के युग के समस्त कार्य का प्रतिनिधित्व करता है; वह देह में देहधारी हुआ और उसे सलीब पर चढ़ाया गया, और उसने भी अनुग्रह के युग का उद्घाटन किया। छुटकारे के कार्य को पूरा करने, व्यवस्था के युग का अंत करने और अनुग्रह के युग का आरम्भ करने के लिए उसे सलीब पर चढ़ाया गया था, और इसलिए उसे "सर्वोच्च सेनापति," "पाप बलि," और "छुटकारा दिलाने वाला" कहा गया। इस प्रकार यीशु के कार्य की विषय सूची यहोवा के कार्य से अलग थी, यद्यपि वे सैद्धान्तिक रूप से एकही थे। यहोवा ने व्यवस्था का युग आरम्भ किया, गृह आधार स्थापित किया, अर्थात्, पृथ्वी पर अपने कार्य का उद्गम स्थल, और आज्ञाओं को जारी किया; ये उसकी उपलब्धियों में से दो थीं, जो व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। जिस कार्य को यीशु ने अनुग्रह के युग में किया वह आज्ञाओं को जारी करना नहीं था बल्कि आज्ञाओं को पूरा करना था, परिणामस्वरूप अनुग्रह के युग का सूत्रपात करना और व्यवस्था के युग को समाप्त करना था जो दो हज़ार सालों तक रहा था। वह अग्रणी था, जो अनुग्रह के युग को शुरू करने के लिए आया, उसके कार्य का मुख्य भाग छुटकारे में रहता है। और इसलिए उसकी उपलब्धियाँ भी दोगुनी थीं: एक नए युग का मार्ग प्रशस्त करना, और अपने सलीब पर चढ़ने के माध्यम से छुटकारे के कार्य को पूरा करना। तब वह चला गया। उस स्तर पर, व्यवस्था का युग समाप्त हो गया और मानवजाति ने अनुग्रह के युग में प्रवेश किया।
जो कार्य यीशु ने किया वह उस युग में मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार था। उसका कार्य मानवजाति को छुटकारा दिलाना, उन्हें उनके पापों के लिए क्षमा करना था, और इसलिए उसका स्वभाव पूरी तरह से विनम्रता, धैर्य, प्रेम, धर्मपरायणता, सहनशीलता, दया और करूणामय-प्यार था। उसने मानवजाति को प्रचुरता से धन्य किया और वह उनके लिए ढेर सारा अनुग्रह लाया, और वे सभी चीज़ें जिनका वे संभवतः आनन्द ले सकते थे, उसने उन्हें उनके आनंद के लिए दी: शांति और प्रसन्नता, अपनी सहनशीलता और प्रेम, अपनी दया और अपना करूणामय-प्यार। उन दिनों, वह सब जिससे मनुष्य का सामना होता था वह थीं उसके आनन्द की ढेर सारी चीज़ें: उनके हृदय शांत और आश्वस्त थे, उनकी आत्माओं को सान्त्वना थी, और उन्हें उद्धारकर्ता यीशु द्वारा जीवित रखा गया था। यह कि वे इन चीज़ों को प्राप्त कर सके यह उस युग का एक परिणाम था जिसमें वे रहते थे। अनुग्रह के युग में, मनुष्य पहले से ही शैतान की भ्रष्टता से गुज़र चुका था, और इसलिए समस्त मानवजाति को छुटकारा देने के कार्य हेतु, अनुग्रह की भरमार, अनन्त सहनशीलता और धैर्य, और उससे भी बढ़कर, मानवजाति के पापों का प्रयाश्चित करने के लिए पर्याप्त बलिदान की आवश्यकता थी ताकि इसके प्रभाव तक पहुँचा जा सके। अनुग्रह के युग में मानवजाति ने जो देखा वह मानवजाति के पापों के प्रायश्चित के लिए मेरी भेंट मात्र था, अर्थात्, यीशु। वे केवल इतना ही जानते थे कि परमेश्वर दयावान और सहनशील हो सकता है, और उन्होंने केवल यीशु की दया और करूणामय-प्रेम को देखा था। ऐसा पूरी तरह से इसलिए था क्योंकि वे अनुग्रह के युग में रहते थे। और इसलिए, इससे पहले कि उन्हें छुटकारा दिया जा सके, उन्हें कई प्रकार के अनुग्रह का आनन्द उठाना था जो यीशु ने उन्हें प्रदान किए थे; केवल यही उनके लिए लाभदायक था। इस तरह, उनके द्वारा अनुग्रह का आनन्द उठाने के माध्यम से उन्हें उनके पापों से क्षमा किया जा सकता था, और यीशु की सहनशीलता और धीरज का आनन्द उठाने के माध्यम से उनके पास छुटकारा पाने का एक अवसर भी हो सकता था। केवल यीशु की सहनशीलता और धैर्य के माध्यम से ही उन्होंने क्षमा पाने का अधिकार प्राप्त किया और यीशु के द्वारा दिए गए अनुग्रह की भरमार का आनन्द उठाया—वैसे ही जैसे कि यीशु ने कहा था, "मैं धार्मिकों को नहीं बल्कि पापियों को छुटकारा दिलाने, पापियों को उनके पापों से क्षमा किए जाने की अनुमति देने आया हूँ।" यदि यीशु मनुष्य के अपराधों के न्याय, अभिशाप, और असहिष्णुता के स्वभाव के साथ देहधारी होता, तो मनुष्य के पास छुटकारा पाने का अवसर कभी नहीं होता, और वह हमेशा के लिए पापी रह गया होता। यदि ऐसा हुआ होता, तो छः-हज़ार-सालों की प्रबन्धन योजना व्यवस्था के युग में रुक गई होती, और व्यवस्था का युग छः-हज़ार-साल बढ़ गया होता। मनुष्य के पापों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई होती और पाप बहुत दारुण हो गए होते, और मानवजाति के सृजन का कोई अर्थ नहीं रह गया होता। मनुष्य केवल व्यवस्था के अधीन ही यहोवा की सेवा करने में समर्थ हो पाता, परन्तु उसके पाप सबसे पहले सृजन किए गए मनुष्यों से बढ़कर हो गए होते। जितना ज़्यादा प्रेम यीशु ने मानवजाति को उसके पापों को क्षमा करते हुए और उन पर पर्याप्त दया और करूणामय-प्रेम लाते हुए किया, उतना ही ज़्यादा मानवजाति ने बचाए जाने, खोई हुई भेड़ कहलाने, की क्षमता प्राप्त की जिन्हें यीशु ने बड़ी कीमत देकर वापिस खरीदा था। शैतान इस काम में गड़बड़ी नहीं डाल सकता था, क्योंकि यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ इस तरह से व्यवहार किया था जैसे एक करूणामयी माता अपने नवजात को अपने आलिंगन में लेकर करती है। वह उन पर क्रोधित नहीं हुआ या उनका तिरस्कार नहीं किया, बल्कि सांत्वना से भरा हुआ था; वह उनके बीच कभी भी अचानक बहुत क्रोधित नहीं हुआ; बल्कि उनके पापों के साथ धैर्य रखा और उनकी मूर्खता और अज्ञानता के प्रति आँखें मूँद ली, यह कह कर कि, "दूसरों को सत्तर गुना सात बार क्षमा करो।" इसलिए उसके हृदय ने दूसरों के हृदयों को रूपांतरित कर दिया। यह इसी तरह से था कि लोगों ने उसकी सहनशीलता के माध्यम से अपने पापों से क्षमा प्राप्त की।
यद्यपि यीशु, अपने देहधारण में पूरी तरह से भावना रहित था, फिर भी वह हमेशा अपने चेलों को दिलासा देता था, उनका भरण-पोषण करता था, उनकी सहायता करता था और उन्हें जीवित रखता था। उसने कितना भी अधिक कार्य किया या उसने कितना भी अधिक दर्द सहा, फिर भी उसने कभी भी लोगों से बहुत ज़्यादा माँग नहीं की, बल्कि उनके पापों के प्रति हमेशा धैर्यवान था और सहनशील था, इतना कि अनुग्रह के युग में लोग उसे स्नेह के साथ "प्यारा उद्धारकर्ता यीशु" कहते थे। उस समय के लोगों के लिए—सभी लोगों के लिए—यीशु के पास जो था और जो यीशु स्वयं था, वह था दया और करूणामय-प्रेम। उसने कभी लोगों के अपराधों को स्मरण नहीं किया, और उनके प्रति उसका व्यवहार उनके अपराधों के आधार पर नहीं था। क्योंकि वह एक भिन्न युग था, वह प्रायः लोगों को प्रचुर मात्रा में भोजन और पेय पदार्थ प्रदान करता था ताकि वे अपने पेट भर कर खा सकें। उसने अपने सभी अनुयायियों के साथ अनुग्रह के साथ व्यवहार किया, बीमारों को चंगा किया, दुष्टात्माओं को निकाला, और मुर्दों को जिलाया। ताकि लोग उस पर विश्वास कर सकें और देख सकें कि जो कुछ भी उसने किया वह सच्चाई और ईमानदारी से किया, उन्हें यह दिखाते हुए कि उसके हाथों से मृतक भी वापस जीवित हो सकते हैं वह एक सड़ती हुई लाश को पुनः जीवित करने तक चला गया। इस तरह से उसने खामोशी से सहा और बीच में छुटकारे के अपने कार्य को किया। यहाँ तक कि इससे पहले कि उसे सलीब पर चढ़ाया जाता, यीशु ने पहले ही मानवता के पापों को अपने ऊपर धारण कर लिया था और मानवजाति के लिए एक पाप बलि बन गया था। सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले, मानवजाति को छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से उसने पहले से ही सलीब तक पहुँचने का मार्ग खोल दिया था। अंततः उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया, उसने अपने आपको सलीब के वास्ते बलिदान कर दिया, और उसने अपनी सारी दया, करूणामय-प्रेम, और पवित्रता मानवजाति को प्रदान कर दी। वह मानवजाति के लिए हमेशा सहिष्णु था, कभी भी प्रतिशोधी नहीं था, बल्कि उसने उनके पापों को क्षमा किया, उन्हें पश्चाताप करने के लिए उत्साहित किया, उन्हें धैर्य, सहनशीलता और प्रेम रखना, उसके पदचिह्नों का अनुसरण करना और सलीब के वास्ते स्वंय को बलिदान करना सिखाया। अपने भाईयों और बहनों के प्रति उसका प्रेम मरियम के प्रति प्रेम से भी बढ़ कर था। उसने जो कार्य किया उसमें लोगों को चंगा करने और उनके भीतर की दुष्टात्माओं को निकालने को उसके सिद्धांत के रूप में अपनाया था, और यह सब कुछ उसके द्वारा छुटकारे के लिए था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह कहाँ गया, उसने उन सभी के साथ अनुग्रह का व्यवहार किया जिन्होंने उसका अनुसरण किया। उसने ग़रीबों को अमीर बनाया, लँगड़ों को चलाया, अंधों को आँख दी, और बहरों को सुनने की शक्ति दी; यहाँ तक कि उसने सबसे अधमों और कंगालों, पापियों को अपने साथ एकही मेज पर बैठने के लिए आमंत्रित किया, उन्हें दूर नहीं किया बल्कि हमेशा धैर्यवान रहा, और यह भी कहा, "जब कोई चरवाहा एक सौ में से एक भेड़ को खो देता है, तो उस एक खोई हुई को ढूँढ़ने के लिए वह निन्यानबे को छोड़ देगा, और जब वह उसे खोज लेगा तो वह बहुत आनन्दित होगा।" वह अपने अनुयायियों से ऐसा ही प्रेम करता था जैसे एक मादा भेड़ अपने मेम्नों से प्रेम करती है। यद्यपि वे मूर्ख और अज्ञानी थे, और उसकी नज़रों में पापी थे, और इसके अलावा समाज के सबसे दीन सदस्य थे, फिर भी उसने इन पापियों को—उन मनुष्यों को जिनका लोग तिरस्कार करते थे—अपनी आँख के तारे के रूप में देखा। चूँकि उसने उनका पक्ष लिया, इसलिए उसने उनके लिए अपना जीवन त्याग दिया, एक मेम्ने के समान जिसे वेदी के ऊपर बलिदान किया गया था। वह, बिना शर्त उनके प्रति समर्पण करते हुए, उन्हें अपने आप का उपयोग और अपनी हत्या करने देते हुए, उनके बीच में ऐसे घूमा-फिरा मानो कि वह उनका दास हो। अपने अनुयायियों के लिए वह प्यारा उद्धारकर्ता यीशु था, परन्तु फरीसियों के लिए, जो ऊँचे मंच से लोगों को उपदेश देते थे, वह कोई दया और करूणामय-प्रेम नहीं, बल्कि घृणा और आक्रोश दिखाता था। उसने फरीसियों के बीच बहुत काम नहीं किया, केवल कभी-कभार ही उन्हें उपदेश देता था और उन्हें डाँटता था; वह उनके बीच छुटकारे का कार्य करते हुए नहीं घूमा-फिरा, न ही चिह्न और अद्भुत काम नहीं किए। उसने अपने अनुयायियों को अपनी समस्त दया और करूणामय-प्रेग प्रदान किया, सलीब पर चढ़ाए जाने के बिल्कुल अंत समय तक वह इन पापियों के वास्ते सहता रहा था, और जब तक उसने पूरी मानवता को छुटकारा न दे दिया, तब तक हर प्रकार के अपमान को भुगतता रहा था। यह उसके कार्य का कुल योग था।
यीशु द्वारा छुटकारे के बिना, मानवजाति सदा सर्वदा पाप में रह रही होती, और पाप की सन्तान और दुष्टात्माओं का वंशज बन जाती। इसी तरह से चलते हुए, समस्त पृथ्वी शैतान का आवास स्थान, इसके निवास का स्थान बन गई होती। परन्तु छुटकारे के कार्य हेतु मानवजाति के प्रति दया व करूणामय-प्रेम दर्शाने की ज़रूरत थी; केवल इस तरीके से ही मानवजाति क्षमा प्राप्त कर सकती थी और अंत में पूर्ण किए जाने और पूरी तरह से ग्रहण किए जाने का अधिकार प्राप्त कर सकती थी। कार्य के इस चरण के बिना, छः-हज़ार-सालों की प्रबन्धन योजना आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो सकती थी। यदि यीशु को सलीब पर नहीं चढ़ाया गया होता, यदि उसने केवल लोगों को चंगा ही किया होता और उनकी दुष्टात्माओं को ही निकाला होता, तो लोगों को उनके पापों से पूर्णतः क्षमा नहीं किया जा सकता था। वे साढ़े तीन साल जो यीशु ने पृथ्वी पर कार्य करते हुए व्यतीत किए, उसने छुटकारे के अपने कार्य का केवल आधा ही पूर्ण किया था; तब, सलीब पर चढ़ाए जाने और पापमय देह की समानता बनने के द्वारा, एक बुराई को सौंपे जाने के द्वारा, उसने सलीब पर चढ़ाए जाने का कार्य पूर्ण किया और मानवजाति की नियति को वश में कर लिया। उसने केवल शैतान के हाथों में सौंप दिए जाने के बाद ही मानवजाति को छुटकारा दिया। साढ़े तैंतीस सालों तक उसने, उपहास किए जाते हुए, कलंक लगाए जाते हुए, और उसे परित्यक्त किए जाते हुए, पृथ्वी पर कष्ट सहा, इस स्थिति तक कि उसके पास सिर रखने की भी जगह नहीं थी, आराम की कोई जगह नहीं थी; तब उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया, उसका सम्पूर्ण अस्तित्व—निष्कलंक और निर्दोष शरीर—सलीब पर चढ़ा दिया गया, और हर तरह के कष्ट से गुज़रा। जो सत्ता में थे उन्होंने उसका मज़ाक उड़ाया और उसे चाबुक मारे, और यहाँ तक कि सैनिकों ने उसके मुँह पर थूका; मगर वह, मृत्यु के क्षण तक बिना किसी शर्त के समर्पण करते हुए, शांत रहा और अंत तक सहता रहा, इसके पश्चात उसने पूरी मानवजाति को छुटकारा दिलाया। केवल तभी उसे आराम करने की अनुमति दी गई थी। यीशु ने जो कार्य किया वह केवल अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है; यह व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, न ही अंत के दिनों के कार्य का स्थानापन्न है। यही अनुग्रह के युग, दूसरे युग जिससे मानवजाति गुज़री है—छुटकारे के युग—में यीशु के कार्य का सार है।

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