2018/08/08

परमेश्वर के स्वभाव को समझना अति महत्वपूर्ण है

सर्वशक्तिमान परमेश्वर, यीशु, परमेश्वर, सत्य, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनसर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन—परमेश्वर के स्वभाव को समझना अति महत्वपूर्ण है

बहुत सारी ऐसी चीज़ें हैं जिनके विषय में मैं आशा करता हूँ कि आप उसे प्राप्त करेंगे फिर भी, आपकी गतिविधियाँ और आपका जीवन मेरी माँगों को सम्पूर्णता से पूरा करने में असमर्थ हैं, इसलिए, सीधे मुद्दे पर आकर अपने दिल और मन की बात आपको समझाता हूं। ये मानते हुए कि आपकी परखने और प्रशंसा करने की योग्यताएँ बेहद कमज़ोर हैं, आप पूरी तरह मेरे विवेक और सार से लगभग बिलकुल अनजान हैं, तो ये अति आवश्यक है कि मैं इसके बारे में आपको सूचित करूँ। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पहले कितना समझते थे या फिर आप इन विषयों को समझने में इच्छुक हैं कि नहीं, फिर भी मुझे उनके बारे में आपको विस्तारपूर्वक बताना होगा। ये कोई ऐसा विषय नहीं हैं जो आपके लिए बिलकुल अनजान हो, परन्तु ऐसा नहीं लगता कि आप इसे समझते हैं या इसमें जो अर्थ निहित है उससे परिचित हैं। बहुतों के पास समझ की बस एक हल्की सी रोशनी है और मुख्यतः इस विषय का एक छिछला ज्ञान है।सच्चाई को बेहतर ढंग से अपनाने में आपकी मदद करने के लिये, अर्थात मेरे वचनों को अभ्यास में लाने के लिये पहले आपको इस विषय को समझना होगा। अन्यथा आपका विश्वास अस्पष्ट, कपटपूर्ण, और धर्म के रंगों में रंगा हुआ बना रहेगा। यदि आप परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझोगे, तब आप जो उसके लिए करना चाहते हैं उसे करना आपके लिए असंभव होगा। यदि आप परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं जानते हैं, तो भी उसके आदर और भय को धारण करना असंभव होगा, केवल बेपरवाह असावधानी और घुमा फिराकर कहना और इसके अतिरिक्त असाध्य ईश निन्दा होगी। परमेश्वर के स्वभाव को समझना वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है, और परमेश्वर के अस्तित्व के ज्ञान को कभी भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है, फिर भी किसी ने भी पूरी तरह इस विषय का परीक्षण नहीं किया है या उसकी गहराई मे नहीं गए हैं। यह बिलकुल साफ साफ देखा जा सकता है कि आपने मेरे द्वारा दिए गए सभी प्रशासनिक आदेशों को निरस्त कर दिया है। यदि आप परमेश्वर के स्वभाव को समझ नहीं सकते हैं, तो आप आसानी से उसके स्वभाव को ठेस पहुँचा देंगे। ऐसा अपराध स्वयं परमेश्वर को क्रोधित करने के समान है, और अंततः प्रशासनिक आदेशों के विरूद्ध एक गुनाह बन जाता है। अब आपको एहसास हो जाना चाहिए कि जब आप उसके सार को समझ जाते हैं तो आप परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकते हैं, और परमेश्वर के स्वभाव को समझना उसके प्रशासनिक आदेशों को समझने के बराबर है। निश्चित रूप से, परमेश्वर के स्वभाव में बहुत सारे प्रशासनिक आदेश शामिल हैं, परन्तु उसके स्वभाव की सम्पूर्णता को उनमें प्रकट नहीं किया गया है। इसमें परमेश्वर के स्वभाव से और ज़्यादा परिचित होने की जरूरत है।
आज मैं आप से सामान्य बोलचाल की भाषा में बात नहीं कर रहा हूँ, अतः आपको मेरे वचनों पर ईमानदारी से ध्यान देना होगा और, इसके अतिरिक्त, गहराई से उन पर विचार करना होगा। इस से मेरा अभिप्राय यह है कि आप ने उन वचनों के प्रति जो मैं ने कहे हैं, बहुत थोड़ा सा प्रयास किया है। जब परमेश्वर के स्वभाव की बात आती है, तो उस पर मनन करने के लिए आप और भी अनिच्छुक हो जाते हैं, और इस पर बहुत ही कम लोग समर्पित होते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि आपका विश्वास मात्र शब्दों का आडम्बर है। अभी भी, अपनी अति महत्वपूर्ण कमज़ोरियों के लिए आप में से एक ने भी कोई सच्चा प्रयास नहीं किया है। आपके लिए इतना दर्द सहने के बावजूद भी आपने मुझे शर्मिन्दा किया है। इस में कोई आश्चर्य नहीं कि आप सभी परमेश्वर का भय एवं उसकी आज्ञाओं को नहीं मानते हैं और ऐसा जीवन जीते हैं जिस में कोई सत्य नहीं है। इस प्रकार के लोगों को संत कैसे माना जाएगा? स्वर्ग ऐसी बात को बर्दाश्त नहीं करेगा! चूंकि आप समझने से इतना भय खाते हैं, तो मुझे कुछ और साँसें न्योछावर करनी होंगी।
परमेश्वर का स्वभाव एक ऐसा विषय है जो बहुत गूढ़ दिखाई देता है और जिसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता, क्योंकि उसका स्वभाव मनुष्यों के व्यक्तित्व के समान नहीं है। परमेश्वर के पास भी आनन्द, क्रोध, दुखः, और खुशी की भावनाएँ हैं, परन्तु ये भी भावनाएँ उन मनुष्यों की भावनाओं से जुदा हैं। परमेश्वर का अपना अस्तित्व और स्वत्वबोध है। जो कुछ वह प्रकट और उजागर करता है वह उसके सार और उसकी पहचान का प्रस्तुतिकरण है। उसकी हस्ती, उसका स्वत्वबोध , साथ ही उसके सार और पहचान को किसी मनुष्य के द्वारा बदला नहीं जा सकता है। उसका स्वभाव मानव जाति के प्रति उसके प्रेम, मानव जाति के लिए उसकी दिलासा, मानव जाति के प्रति नफरत, और उस से भी बढ़कर, मानव जाति की सम्पूर्ण समझ के चारों ओर घूमता रहता है। फिर भी, मुनष्य का व्यक्तित्व आशावादी, जीवन्त, या कठोर हो सकता है। परमेश्वर का स्वभाव सब बातों में जीवित प्राणियों के शासक, और सारी सृष्टि के प्रभु से सम्बन्ध रखता है। उसका स्वभाव आदर, सामर्थ, कुलीनता, महानता, और सब से बढ़कर, सर्विच्चता का प्रतिनिधित्व करता है। उसका स्वभाव अधिकार और उन सब का प्रतीक है जो धर्मी, सुन्दर, और अच्छा है। इस के अतिरिक्त, यह इस का भी प्रतीक है कि परमेश्वर को अंधकार और शत्रु के बल के द्वारा दबाया या उस पर आक्रमण नहीं किया जा सकता है[क], साथ ही इस बात का प्रतीक भी है कि उसे किसी भी सृजे गए प्राणी के द्वारा ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती है(और उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं है)[ख]। उसका स्वभाव सब से ऊँची सामर्थ का प्रतीक है। कोई भी मनष्य उसके कार्य और उसके स्वभाव को अस्थिर नहीं कर सकता है। परन्तु मनुष्य का व्यक्तित्व पशुओं से थोड़ा बेहतर होने के चिन्ह से बढ़कर कुछ भी नहीं है। मनुष्य के पास अपने आप में और स्वयं में कोई अधिकार नहीं है, कोई स्वयत्त्तता नहीं है, और स्वयं को श्रेष्ठ करने की कोई योग्यता भी नहीं है, वो तो बस एक तत्व है जो किसी व्यक्ति की चालाकी, घटना, या वस्तु के द्वारा भयातुर होकर नतमस्तक हो जाता है। परमेश्वर का आनन्द धार्मिकता और ज्योति की उपस्थिति और अभ्युदय से है; अँधकार और बुराई के विनाश से है। वह आनन्दित होता है क्योंकि वह मानव जाति के लिए ज्योति और अच्छा जीवन ले कर आया है; उसका आनन्द धार्मिकता का है, हर चीज़ के सकारात्मक होने का एक प्रतीक, और सब से बढ़कर कल्याण का प्रतीक। परमेश्वर का क्रोध अन्याय की मौजूदगी और उस अस्थिरता के कारण है जो इससे पैदा होती है जो उसकी मानव जाति को हानि पहुँचा रही है; बुराई और अँधकार की उपस्थिति के कारण, और ऐसी चीज़ों की उपस्थिति जो सत्य को बाहर धकेल देती है, और उस से भी बढ़कर ऐसी चीज़ों की उपस्थिति के कारण जो उनका विरोध करती हैं जो भला और सुन्दर है। उसका क्रोध एक चिन्ह है कि वे सभी चीज़ें जो नकारात्मक हैं आगे से अस्तित्व में न रहें, और इसके अतिरिक्त यह पवित्रता का प्रतीक है। उसका दुखः मानव जाति के कारण है, जिसके लिए उस ने आशा की थी परन्तु वह अंधकार में गिर गई, क्योंकि जो कार्य वह मनष्यों के लिए करता है मनुष्य वह उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता, और क्योंकि वह जिस मानव जाति से प्रेम करता है वह ज्योति में पूरी तरह जीवन नहीं जी पाती। वह अपनी भोलीभाली मानव जाति के लिए, ईमानदार किन्तु अनजान मनुष्य के लिए, और अच्छे और अनिश्चित भाव वाले मनुष्य के लिए दुखः की अनुभूति करता है। उसका दुखः उसकी भलाई और उसकी करूणा का चिन्ह है, और सुन्दरता और उदारता का चिन्ह है। उसकी प्रसन्नता, वास्तव में, अपने शत्रुओं को हराने और मनुष्यों के भले विश्वास को प्राप्त करने से आती है। इसके अतिरिक्त, सभी शत्रु ताकतों को भगाने और हराने से और मनुष्यों के द्वारा भले और शांतिपूर्ण जीवन को प्राप्त करने से आती है। परमेश्वर की प्रसन्नता, मनुष्य के आनंद के समान नहीं है; उसके बजाए, यह मनोहर फलों को प्राप्त करने का एहसास है, एक एहसास जो आनंद से बढ़कर है। उसकी प्रसन्नता इस बात का चिन्ह है कि मानव जाति दुखः की जंज़ीरों को तोड़कर आज़ाद होकर ज्योति के संसार में प्रवेश करती है। दूसरे रूप में, मानव जाति की भावनाएँ सिर्फ स्वयं के सारे स्वार्थों के उद्देश्य के तहत अस्तित्व में हैं, धार्मिकता, ज्योति, या जो सुन्दर है उसके लिए नहीं, और स्वर्ग के अनुग्रह के लिए तो बिल्कुल नहीं। मानव जाति की भावनाएँ स्वार्थी हैं और अँधकार के संसार से वास्ता रखती हैं। वे इच्छा के लिए नहीं हैं, परमेश्वर की योजना के लिए तो बिल्कुल नहीं। इसलिए मनुष्य और परमेश्वर को एक ही साँस मे बोला नहीं जा सकता है। परमेश्वर सर्वदा सर्वोच्च है और हमेशा आदरणीय है, जबकि मनुष्य सर्वदा तुच्छ और हमेशा से निकम्मा है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर हमेशा बलिदान करता रहता है और मनुष्यों के लिए अपने आप को दे देता है; जबकि, मनुष्य हमेशा लेता है और सिर्फ अपने आप के लिए ही परिश्रम करता है। परमेश्वर सदा मानव जाति के अस्तित्व के लिए परिश्रम करता रहता है, फिर भी मनुष्य ज्योति और धार्मिकता में कभी भी कोई योगदान नहीं देता है। भले ही मनुष्य कुछ समय के लिए परिश्रम करे, लेकिन वह कमज़ोर होता है और हल्के से झटके का भी सामना नहीं सकता है, क्योंकि मनुष्य का परिश्रम केवल उसी के लिए होता है दूसरों के लिए नहीं। मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर सर्वदा स्वार्थ विहीन होता है। परमेश्वर उन सब का स्रोत है जो धर्मी, अच्छा, और सुन्दर है, जबकि मनुष्य सब प्रकार की गन्दगी और बुराई का वाहक और फैलाने वाला है। परमेश्वर कभी भी अपनी धार्मिकता और सुन्दरता के सार-तत्व को नहीं पलटेगा, जबकि मनुष्य किसी भी समय धार्मिकता से विश्वासघात कर सकता है और परमेश्वर से दूर जा सकता है।
हर एक वाक्य जो मैं ने कहा है वह परमेश्वर के स्वभाव को सिद्ध करता है। आप यदि मेरे वचनों पर सावधानी से मनन करोगे तो अच्छा होगा, और आप निश्चय उनसे बड़ा लाभ उठाएंगे। परमेश्वर के सार-तत्व को समझना बड़ा ही कठिन काम है, परन्तु मैं भरोसा करता हूँ कि आप सभी के पास कम से कम परमेश्वर के स्वभाव का कुछ तो ज्ञान है। तब, मैं आशा करता हूँ कि आप वह कार्य जिससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचती है और भी अधिक करेंगे और मुझे दिखाएँगे। तब ही मुझे पुनः आश्वासन मिलेगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर को हर समय अपने दिल में रखिए। जब आप कार्य करते हैं तो उसके वचनों के साथ बने रहिये। सब बातों में उसके विचारों की खोज कीजिए, और ऐसा कोई भी काम मत कीजिए जिससे परमेश्वर का अनादर और अपमान हो। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर को अपने हृदय के भविष्य के खालीपन को भरने के लिए अपने मन में मत रखिये। यदि आप ऐसा करेंगे, तो आप परमेश्वर के स्वभाव को ठेस लगायेंगे। यदि आपने परमेश्वर के विरूद्ध कभी भी ईश निन्दा की टिप्पणी या शिकायत नहीं की है और अपने सम्पूर्ण जीवन में जो कुछ उसने आपको सौंपा है उस से यथोचित कार्य करने में समर्थ रहे हैं, साथ ही परमेश्वर के वचनों के लिए पूर्णतया समर्पण कर दिया है, तो आप प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने से बचने में सफल हुए हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप ने कभी ऐसा कहा है, "मैं ऐसा क्यों न सोचूँ कि वह परमेश्वर है?", "मैं सोचता हूँ कि ये शब्द पवित्र आत्मा के प्रकाशन से बढ़कर और कुछ नहीं हैं","मैं नहीं सोचता कि जो कुछ परमेश्वर करता है वह सही है","परमेश्वर की मानवीयता मेरी मानवीयता से बढ़कर नहीं है", "परमेश्वर का वचन सामान्य रूप से विश्वास करने योग्य नहीं है," या अन्य प्रकार की दोषारोपण संबंधी टीका टिप्पणियाँ, तो मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आप अपने पापों का अंगीकार करें और पश्चाताप करें। अन्यथा, आपको पापों की क्षमा के लिए कभी अवसर नहीं मिलेगा, क्योंकि आपने किसी मनुष्य को नहीं, परन्तु स्वयं परमेश्वर को ठेस पहुँचाई है। आप सोच सकते हैं कि आप मात्र एक मनुष्य पर न्याय-विचार कर रहे हैं, किन्तु परमेश्वर का आत्मा इस रीति से विचार नहीं करता है। उसकी देह का अनादर उसके अनादर के बराबर है। यदि ऐसा है, तो क्या आपने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचाई है? आपको याद रखना होगा कि जो कुछ भी परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया गया है वह उसकी देह में उसके कार्य का समर्थन करने और ऐसे कार्य को भली भांति करने के लिए किया गया है। यदि आप इसे महत्व न दें, तब मैं कह सकता हूँ आप ही वो शख्स हैं जो परमेश्वर पर विश्वास करने में कभी सफल नहीं हो पाएँगे। क्योंकि आपने परमेश्वर के क्रोध को भड़का दिया है, इस प्रकार आपको सज़ा देने के लिए उसे उचित दण्ड का इस्तेमाल करना होगा।
परमेश्वर के सार-तत्व से परिचित होना कोई खिलवाड़ की बात नहीं है। आपको उसके स्वभाव को समझना ही होगा। इस तरह से आप धीर धीरे परमेश्वर के सार-तत्व से परिचित होते जाएँगे, जब तुम इस ज्ञान में प्रवेश कर लोगे, और इस प्रकार आप एक ही साथ एक महान और ख़ू़बसूरत स्थिति में आगे बढ़ते जाएँगे। अंत में आप अपने घृणित आत्मा पर इतनी लज्जा महसूस करेंगेकि आप अपनी शक्ल दिखाने से भी लजाएँगे। उस समय, आप परमेश्वर के स्वभाव को कम से कम ठेस पहुँचानायेंगे, आपका हृदय परमेश्वर के निकट और भी निकट होता जाएगा, और धीरे धीरे उसके लिए आपका प्यार आपके हृदय में बढ़ता जाएगा। ये मानव जाति के ख़ूबसूरत स्थिति में प्रवेश करने का एक चिन्ह है। परन्तु आप ने इसे अभी प्राप्त नहीं किया है। आपने अपनी नियति के लिए यहाँ वहाँ भटकते हुए अपने आप को थका दिया है, तो परमेश्वर के स्वभाव से परिचित होने की कौन सोचेगा? क्या इसे जारी रहना चाहिए, आप अनजाने में प्रशासनिक आदेशों के विरूद्ध अपराध करेंगे क्योंकि आप परमेश्वर के स्वभाव के बारे में बहुत ही कम जानते हैं। तो क्या अब आप परमेश्वर के स्वभाव के विरूद्ध अपने अपराधों के लिये नींव नहीं खोद रहे हैं? मैं चाहता हूं कि आप इस बात को समझें कि परमेश्वर के स्वभाव और मेरे कार्य में कोई मतभेद नहीं है। क्योंकि यदि आप बार बार प्रशासनिक आदेशों के विरूद्ध अपराध करते रहेंगे, तो आप में से कौन है जो दण्ड से बच पाएगा? तो क्या मेरा कार्य पूरी तरह व्यर्थ नहीं हो जाएगा? इसलिए, मैं अभी भी कहता हूँ कि अपने कार्यों का सूक्ष्म परीक्षण करने के साथ साथ, आप जो कदम उठा रहे हैं उसके प्रति सावधान रहिए। यह एक बड़ी माँग है जो मैं आप से करूँगा और आशा करता हूँ कि आप इस पर सावधानी से विचार करेंगे और इसे महत्वपूर्ण समझेंगे। यदि एक दिन ऐसा आया जब आपके कार्य मुझे प्रचण्ड रूप से क्रोधित करें, तब परिणाम सिर्फ आपको ही भुगतने होंगे जिन पर आपको विचार करना होगा, और आपके स्थान पर दण्ड को सहने वाला और कोई नहीं होगा।
फुटनोट:
क. मूल पाठ कहता है "असमर्थ होते हुए"
ख. मूल पाठ कहता है "असमर्थ होते हुए (और वास्तव में अनुमति न होते हुए)।"
ब. मूल पाठ कहता है "असमर्थ होते हुए (और वास्तव में अनुमति न होते हुए)।"
 Source From:चमकती पूर्वी बिजली,यीशु

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