2018/12/04

4. आज तक परमेश्वर ने कैसे मानव जाति का नेतृत्व और भरण-पोषण किया है?

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर को जानना

X. परमेश्वर को कैसे जाना जाए, इससे सम्बंधित सच्चाई के पहलू पर हर किसी को स्पष्ट रूप से सहभागिता करनी चाहिए

4. आज तक परमेश्वर ने कैसे मानव जाति का नेतृत्व और भरण-पोषण किया है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य संसार की उत्पत्ति से प्रारम्भ हुआ था और मनुष्य उसके कार्य का मुख्य बिन्दु है। ऐसा कह सकते हैं कि परमेश्वर की सभी चीज़ों की सृष्टि, मनुष्य के लिए ही है। क्योंकि उसके प्रबंधन का कार्य हज़ारों सालों से अधिक में फैला हुआ है, और यह केवल एक ही मिनट या सेकंड में या पलक झपकते या एक या दो सालों में पूरा नहीं होता है, उसे मनुष्य के अस्तित्व के लिए बहुत-सी आवश्यक चीज़ों का निर्माण करना पड़ा जैसे सूर्य, चंद्रमा, सभी जीवों का सृजन और मानवजाति के लिए आहार और रहने योग्य पर्यावरण। यही परमेश्वर के प्रबंधन का प्रारम्भ था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है" से
परमेश्वर ने जातियों का बंटवारा करने के लिए कौन सा कार्य किया है? पहले, उसने अति विशाल भौगोलिक वातावरण, एवं अति विशाल वातावरण को तैयार किया, और लोगों के लिए अलग अलग स्थानों को नियुक्त किया, और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी लोग वहाँ जीवित रहते थे। यह तय हो चुका है-उनके जीवित रहने के लिए दायरा तय हो चुका है। और उनका आहार, उनकी ज़िन्दगियां, जो वे खाते हैं, जो वे पीते हैं, उनकी आजीविका-परमेश्वर ने यह सब बहुत पहले ही तय कर दिया था। और जब परमेश्वर सभी प्राणियों की सृष्टि कर रहा था, उसने अलग अलग प्रकार के लोगों के लिए अलग अलग तैयारियां कीः मिट्टी की अलग अलग बनावटें, विभिन्न जलवायु, विभिन्न पौधे, और विभिन्न भौगोलिक वातावरण हैं। विभिन्न स्थानों में विभिन्न पक्षी और पशु भी हैं, जल के विभिन्न स्रोत में विभिन्न प्रकार की मछलियां और जल में उत्पन्न होने वाले उत्पाद हैं, और कीड़े-मकोड़ों के किस्मों को भी परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया गया है। … इन विभिन्न पहलुओं की भिन्नताओं को शायद लोगों के द्वारा देखा या महसूस नहीं किया जा सकता है, किन्तु जब परमेश्वर सभी प्राणियों की सृष्टि कर रहा था, तब उसने उनकी रूपरेखा को निरुपित किया और भिन्न भिन्न जातियों के लिए विभिन्न भौगोलिक वातावरण, विभिन्न भूभागों, और विभिन्न जीवित प्राणियों को तैयार किया था। क्योंकि परमेश्वर ने विभिन्न प्रकार के लोगों को सृजा था, वह जानता है कि उनमें से प्रत्येक की जरूरत क्या है और उनकी जीवनशैलियां क्या हैं। इस तरह, जो कुछ परमेश्वर ने बनाया वह बहुत अच्छा है।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX" से
इन अलग अलग मानवीय जीवनशैलियों की मूल परिस्थितयां क्या हैं? क्या उन्हें जीवित रहने के लिए अपने वातावरण का मूलभूत संरक्षण करने की आवश्यकता नहीं होती है? दूसरे अर्थ में, यदि शिकारी को पहाड़ी जंगलों या पक्षियों और पशुओं को खोना पड़ता, तो उनके पास आगे से अपनी कोई जीविका नहीं होती। अतः वे लोग जो शिकार पर जीवन निर्वाह करते हैं यदि उन्होंने पहाड़ी जंगलों को खो दिया होता और आगे से उनके पास कोई पक्षी और पशु नहीं होता, तो उनके पास आगे से अपनी जीविका का कोई स्रोत नहीं होता। उस प्रकार का जातीय समूह किस दिशा में अग्रसर होता; उस किस्म के लोग कहां जाते? ज़िन्दा बचने या न बचने की क्षमता एक अज्ञात मात्रा है और वे बस लुप्त हो सकते हैं। और ऐसे लोग जो अपनी जीविका के लिए मवेशियों को झुण्ड में चराते हैं-वे घास के मैदानों पर आश्रित हैं। वास्तव में वे जिस पर निर्भर हैं वह उनके पालतू पशुओं का झुण्ड नहीं है, बल्कि वह वातावरण है, जिसमें उनके पालतू पशुओं का झुण्ड जीवित रहता है-घास के मैदान। यदि कहीं कोई घास के मैदान नहीं होते, तो वे अपने पालतू पशुओं के झुण्ड को कहां चराते? मवेशी और भेड़ क्या खाते? पालतू पशुओं के झुण्ड के बिना, खानाबदोश लोगों के पास कौन सी जीविका होती? उनके पास कोई जीविका नहीं होती। अपनी जीविका के स्रोत के बिना, लोग कहां जाते? लगातार ज़िन्दा बचे रहना बहुत ही कठिन हो जाता; उनके पास कोई भविष्य नहीं होता। पानी के स्रोतों के बिना, नदियां और झीलें सूख जातीं। क्या वे सभी मछलियां जो अपनी ज़िन्दगियों के लिए पानी पर निर्भर हैं तब भी जीवित रहतीं? वे मछलियां जीवित नहीं रहतीं। वे लोग जो अपनी जीविका के लिए उस जल और उन मछलियों पर आश्रित हैं क्या वे निरन्तर जीवित रह पाते? यदि उनके पास भोजन नही होता, यदि उनके पास अपनी जीविका का स्रोत नहीं होता, तो वे लोग निरन्तर जीवित रहने में सक्षम नहीं होते। जैसे ही उनकी जीविका या उनके जीवित रहने में कोई समस्या आती है, तो वे जातियां आगे से बनी नहीं रहतीं। वे जीवित रहने में सक्षम नहीं होतीं-वे लुप्त हो सकती हैं, वे पृथ्वी पर से मिट गई होतीं। और ऐसे लोग जो अपनी जीविका के लिए खेती बाड़ी करते हैं यदि वे अपनी मिट्‍टी खो देते हैं, तो अंजाम क्या होता? वे चीज़ों (फसलों) को लगाने में सक्षम नहीं होते, वे विभिन्न पौधों से अपने भोजन को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते। इसका परिणाम क्या होता? भोजन के बिना, क्या लोग भूख से मर नहीं जाते? यदि लोग भूख से मर जाते, तो क्या उस तरह के मानव का सफाया नहीं हो जाता? अतः विभिन्न पारिस्थितिक वातावरण को बनाए रखने के लिए यह परमेश्वर का उद्देश्य है। विभिन्न वातावरण और पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने, और प्रत्येक वातावरण के अंतर्गत विभिन्न जीवित प्राणियों को बनाए रखने में परमेश्वर के पास सिर्फ एक ही उद्देश्य है-वह है सब प्रकार के लोगों का पालन पोषण करना, विभिन्न भौगोलिक वातावरण में जीवन के साथ लोगों का पालन पोषण करना।
यदि सभी प्राणी स्वयं के नियमों को खो देते, तो वे आगे से अस्तित्व में नहीं रहते; यदि सभी प्राणियों के नियम खो जाते, तो जीवित प्राणी सभी जीवों के मध्य निरन्तर बने रहने में सक्षम नहीं होते। मनुष्य जीवित रहने के लिए अपने वातावरण को भी खो देते जिस पर वे जीवित रहने के लिए निर्भर हैं। यदि मनुष्य वह सब कुछ खो देते, तो वे लगातार जीवित रहने और पीढ़ी दर पीढ़ी बहुगुणित होने में सक्षम नहीं होते। मनुष्य आज तक ज़िन्दा बचा हुआ है उसका कारण है क्योंकि परमेश्वर ने मानवजाति को सभी जीव प्रदान किए हैं कि उनका पोषण करें, और विभिन्न तरीकों से मानवजाति का पोषण करें। यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि परमेश्वर विभिन्न तरीकों से मानवजाति का पालन पोषण करता है कि वे आज तक जीवित बचे हुए हैं, कि वे आज के दिन तक ज़िन्दा बचे हुए हैं।
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सभी चीज़ों की बढ़ोत्तरी के लिए परमेश्वर के द्वारा निर्धारित नियमों के दृष्टिकोण से देखने पर, क्या सम्पूर्ण मानवजाति, इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वे किस प्रकार के हैं, परमेश्वर के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं जी रही है-क्या वे सभी उसके पोषण के अंतर्गत नहीं जी रहे हैं? यदि ये नियम नष्ट हो गए होते या यदि परमेश्वर मानवजाति के लिए इस प्रकार के नियमों को निर्धारित नहीं करता, तो उनके भविष्य की संभावनाएं क्या होतीं? मनुष्य जीवित रहने के लिए अपने मूल वातावरण को खो देते उसके बाद, क्या उनके पास भोजन का कोई स्रोत होता? यह संभव है कि भोजन के स्रोत एक समस्या बन जाते। यदि लोगों ने अपने भोजन के स्रोत को खो दिया होता, अर्थात्, उन्हें खाने के लिए कुछ न मिल सकता है, तो सम्भवतः वे एक महीने के लिए भी बने रहने में सक्षम नहीं हो पाते। लोगों का जीवित बचे रहना एक समस्या बन जाता। अतः हर एक चीज़ जिसे परमेश्वर लोगों के जीवित रहने के लिए, उनके लगातार अस्तित्व में बने रहने के लिए और बहुगुणित होने के लिए करता है वह अति महत्वपूर्ण है। हर एक चीज़ जिसे परमेश्वर सभी चीज़ों के मध्य करता है वह लोगों के जीवित बचे रहने से नज़दीकी से सम्बद्ध और अविभाज्य है। यह उनके जीवित रहने से अविभाज्य है। यदि मानवजाति का जीवित रहना एक समस्या बन जाता, तो क्या परमेश्वर का प्रबंधन जारी रह पाता? क्या परमेश्वर का प्रबंधन तब भी अस्तित्व में बना रहता? अतः परमेश्वर का प्रबंधन सम्पूर्ण मानवजाति के जीवित रहने के साथ साथ मौज़ूद है जिसका वह पालन पोषण करता है, और जो कुछ परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए तैयार करता है और जो कुछ वह मनुष्यों के लिए करता है उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि यह सब उसके लिए ज़रूरी है, और यह मानवजाति के जीवित रहने के लिए अति महत्वपूर्ण है। यदि ये नियम जिन्हें परमेश्वर ने सभी चीज़ों के लिए निर्धारित किया था यहां से चले जाते, यदि इन नियमों को तोड़ा या नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जाता, तो सभी चीज़ें आगे से अस्तित्व में बने रहने में सक्षम नहीं होतीं, जीवित रहने के लिए मानवजाति का वातावरण निरन्तर अस्तित्व में नहीं रहता, और न ही उनका दैनिक जीवन आधार, और न ही वे स्वयं निरन्तर अस्तित्व में रहते। इस कारण से, मानवजाति के उद्धार हेतु परमेश्वर का प्रबंधन भी आगे से अस्तित्व में नहीं रहता।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX" से
यहोवा ने मानवजाति का निर्माण किया, जिसका अर्थ है कि उसने मानवजाति के पूर्वजों: हव्वा और आदम का सृजन किया। किन्तु उसने उन्हें आगे कोई ज्ञान या बुद्धि प्रदान नहीं की। यद्यपि वे पहले से ही पृथ्वी पर रह रहे थे, किन्तु उन्हें समझ में लगभग कुछ नहीं आता था। और इसलिए,मानवजाति को बनाने का यहोवा का कार्य केवल आधा-समाप्त हुआ था। यह किसी भी तरह से पूर्ण नहीं था। उसने केवल मिट्टी से मनुष्य का एक नमूना बनाया था और उसे अपनी साँस दे दी थी, किन्तु उसने उसका सम्मान करने की मनुष्य को पर्याप्त इच्छा प्रदान नहीं की थी। आरंभ में, मनुष्य का मन परमेश्वर को सम्मान देने, या उससे डरने के लिए नहीं था। मनुष्य केवल यह जानता था कि उसकेवचनों को कैसे सुनना है, किन्तु पृथ्वी पर जीवन के बुनियादी ज्ञान और जीवन के उचित नियमों के बारे में अनभिज्ञ था। और इसीलिए, यद्यपि यहोवा ने मनुष्य और स्त्री का सृजन किया और सात दिन का उद्यम पूरा किया, किन्तु उसने मनुष्य को पूरी तरह से पूर्ण नहीं किया, क्योंकि मनुष्य केवल एक भूसा था, और वास्तव में एक मनुष्य नहीं था। मनुष्य केवल यह जानता था कि यह यहोवा था जिसने मानवजाति कासृजन किया था, किन्तु मनुष्य को इस बात का कोई आभास नहीं था कि कैसे यहोवा के वचनों और व्यवस्थाओं का पालन किया जाए। और इसलिए, मानव जाति के सृजन के बाद, यहोवा का कार्य अभी ख़त्म होने से बहुत दूर था। उसे अपने सामने मानवजाति का पूरी तरह से मार्गदर्शन करना था ताकि मानव जाति धरती पर एक साथ रहने और उसका सम्मान करने में सक्षम हो जाए, और ताकि मानवजाति उसके द्वारा मार्गदर्शन किए जाने के बाद धरती पर एक उचित मानव जीवन के सही रास्ते पर प्रवेश करने में सक्षम जाए। केवल तभी वह कार्य पूर्णतः सम्पन्न हुआ था जिसे मुख्यतः यहोवा के नाम के अधीन आयोजित किया गया था; अर्थात्, केवल तभी दुनिया का सृजन करने का यहोवा का कार्य पूरी तरह से सम्पन्न हुआ था। और इसलिए, चूँकि उसने मानवजाति का सृजन किया है, उसे पृथ्वी पर हजारों वर्षों तक मानवजाति के जीवन का मार्गदर्शन करना पड़ा था, ताकि मानव जाति उसके आदेशों और व्यवस्थाओं का पालन करने, और पृथ्वी पर एक उचित मानव जीवन की सभी गतिविधियों में हिस्सा ले पाने में सक्षम हो जाए। केवल तभी यहोवा का कार्य पूर्णतः सम्पन्न हुआ था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
… व्यवस्था के युग में यहोवा के कार्य के बाद, परमेश्वर ने दूसरे चरण का अपना कार्य प्रारम्भ किया: देह-धारण कर, दस, बीस साल के लिए मनुष्य के समान अवतरण लेकर, विश्वासियों के मध्य बातचीत करते हुए अपना कार्य किया। फिर भी बिना किसी अपवाद के, कोई भी नहीं जान पाया और प्रभु यीशु को क्रूस पर लटकाने और उसके पुनर्जीवित होने के बाद बहुत थोड़े से लोगों ने इस बात को माना कि वह परमेश्वर था जो देहधारण करके आया था। … जैसे ही परमेश्वर के कार्य का दूसरा चरण पूर्ण हुआ-सूली पर चढ़ाने के बाद - परमेश्वर का मनुष्यों को पाप से बचाने का कार्य (अर्थात मनुष्यों को शैतान की अधीनता से छुड़ाना) पूर्ण किया गया। इसलिए, उस क्षण के बाद से, मानवजाति को प्रभु यीशु को उसके पापों की क्षमा के लिये उद्धारकर्ता के तौर पर स्वीकार करना ही पड़ा। नाममात्र को कहने के लिए, अब मनुष्य के पाप उसके उद्धार को प्राप्त करने और परमेश्वर के सामने आने के लिए अवरोध नहीं रह गए थे और न ही शैतान द्वारा मनुष्य को दोषी ठहराने का लाभ उठाने के लिये रह गए थे। इसका कारण यह है कि परमेश्वर ने स्वयं वास्तविक कार्य किया था, वह उनके जैसा बन गया था और उसने स्वयं पापमय देह का स्वाद चखा था, और परमेश्वर स्वयं पाप बलि बन कर आया। इस प्रकार से, परमेश्वर की देह और देह की समानता की बदौलत मनुष्य क्रूस पर से उतारा गया, छुड़ाया गया एवं बचाया गया। इसलिए, शैतान के द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद, मनुष्य परमेश्वर के सामने उद्धार को ग्रहण करने के लिए एक कदम पास आया। बेशक, कार्य का यह चरण परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य था जो एक कदम आगे था और व्यवस्था के युग से गहरा स्तर था।
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और इसके बाद परमेश्वर के राज्य का युग आया, जो कि कार्य का और भी अधिक व्यवहारिक चरण है और मनुष्य के लिए उसे स्वीकार करना सबसे कठिन भी। वजह यह है कि जितना अधिक मनुष्य परमेश्वर के नज़दीक आता है, परमेश्वर की छड़ी इंसान के उतने ही करीब पहुँचती है और मनुष्य के सामने परमेश्वर का चेहरा उतना ही अधिक स्पष्ट होता जाता है। मानवजाति के छुटकारे के साथ मनुष्य औपचारिक तौर पर परमेश्वर के परिवार में लौट आता है। मनुष्य ने सोचा कि अब आनन्द का समय आया है, फिर भी वह पूरी तरह से परमेश्वर के ऐसे आक्रमण का सामना करने के लिए अधीन है जैसा कि कभी किसी ने नहीं देखा। लेकिन हुआ ऐसा कि, यह एक बपतिस्मा है जिससे परमेश्वर के लोगों को "आनन्द" लेना है। इस प्रकार के व्यवहार में, लोगों के पास ठहरकर सोचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता, मैं, कई सालों तक खोया हुआ एक मेमना हूं, जिसे वापस पाने के लिए परमेश्वर ने कितना कुछ खर्च किया है, तो परमेश्वर मुझसे इस प्रकार का व्यवहार क्यों करता है? क्या यह परमेश्वर का मुझ पर हंसने का, और मुझे प्रगट करने का तरीका है? ... बरसों बीत जाने के बाद, मनुष्य शोधन और ताड़ना की कठिनाइयाँ सह-सहकर सिर्फ़ जीर्ण-शीर्ण हो कर रह गया है, हालांकि मनुष्य ने अतीत की "महिमा" और "प्रणय" को खो दिया है, उसने अनजाने में मनुष्य होने के सत्य को समझ लिया है, और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सालों के समर्पण को भी समझ गया है। मनुष्य धीरे-धीरे स्वयं की बर्बरता से घृणा करने लगता है। वह अपनी असभ्यता से घृणा करने लगता है, और परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की गलतफहमियों से तथा उन सभी अनुचित मांगों से भी वह घृणा करने लगता है जो वह परमेश्वर से करता रहा है। समय को वापस नहीं लाया जा सकता है; अतीत की घटनाएं मनुष्य के लिए पछतावा करने वाली यादें बनकर रह जाती हैं, और परमेश्वर के वचन और प्रेम मानव के लिए नए जीवन की प्रेरणा शक्ति बन जाते हैं। मनुष्य के घाव दिन प्रतिदिन भरते जाते हैं, उसकी सामर्थ्य वापस आने लगती है, और वह खड़ा होता है और सर्वशक्तिमान के चेहरे की ओर देखने लगता है... उसे तभी पता चलता है कि परमेश्वर हमेशा से मेरे साथ रहा है और उसकी मुस्कान और सुन्दर चेहरा अभी भी बहुत जोशीला है। उसके हृदय में अभी भी अपने द्वारा रची गई मानवजाति के लिए चिंता रहती है, और उसके हाथों भी अभी भी वही गर्मी और शक्ति है जो आरंभ में थी। जैसे कि मानव अदन के बाग में लौट आया हो, लेकिनफिर भी इस बार मनुष्य सांप के प्रलोभनों को नहीं सुनता है, यहोवा के चेहरे से दूर नहीं जाता है। मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है, परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है, और उसे अपनी सबसे प्रिय भेंट चढ़ाता है-ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है" से
परमेश्वर के प्रबंधन के अस्तित्व के समय से ही, वह अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमेशा ही पूरी तरह से समर्पित रहा है। उनसे अपने व्यक्तित्व (स्वरूप) को पर्दे में छिपाने के बावजूद, वह हमेशा मनुष्य के अगल बगल ही रहा है, उन पर कार्य करता रहा है, अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है, अपने सारतत्व से समूची मानवजाति की अगुवाई करता रहा है, और अपनी सामर्थ, अपनी बुद्धि, और अपने अधिकार के माध्यम से हर एक व्यक्ति पर अपना कार्य करता रहा है, इस प्रकार वह व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग, और अब राज्य के युग को अस्तित्व में लाता है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य से अपने व्यक्तित्व (स्वरूप) को छुपाता है, फिर भी उसके स्वभाव, उसके अस्तित्व एवं व्यावहारिक सम्पदाओं (गुणों), और मानवजाति के प्रति उसकी इच्छा को सादगी से मनुष्य पर और मनुष्य के देखने एवं अनुभव करने के लिए प्रगट किया गया है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि मानव प्राणी परमेश्वर को देख या स्पर्श नहीं कर सकता है, फिर भी परमेश्वर का स्वभाव एवं परमेश्वर का सारतत्व जिसके सम्पर्क में मानवता रही है वे पूरी तरह से स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्तियां हैं। क्या यह सत्य नहीं है? इसके बावजूद कि परमेश्वर किस तरीके से एवं किस कोण से अपना कार्य करता है, वह हमेशा लोगों से अपनी सच्ची पहचान के अनुसार बर्ताव करता है, ऐसा कार्य करता है जिसे करने की उससे अपेक्षा की जाती है और वैसी बातें कहता है जिसे कहने की उससे अपेक्षा की जाती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर किस स्थान से बोलता है - वह तीसरे आसमान में खड़ा हो सकता है, या देह में होकर खड़ा हो सकता है, या यहाँ तक कि एक साधारण व्यक्ति के रूप में भी - वह बिना किसी छल या छिपाव के हमेशा अपने सारे हृदय और अपने सारे मन के साथ मनुष्य से बोलता है। जब वह अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, परमेश्वर अपने वचन एवं अपने स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और बिना किसी प्रकार के सन्देह के जो उसके पास है और जो वह है उसे प्रगट करता है। वह अपने जीवन और अपने अस्तित्व एवं व्यावहारिक सम्पदाओं (गुणों) के साथ मानवजाति की अगुवाई करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I" से
जब वह किसी पर कार्य करना प्रारम्भ करता है, जब वह किसी को चुनता है, तो वह इसकी घोषणा किसी पर नहीं करता है, न ही वह इसकी घोषणा शैतान पर करता है, कोई भव्य भाव प्रदर्शन तो बिलकुल भी नहीं करता है। वह बस बहुत शान्ति से, बहुत स्वभाविक रीति से जो ज़रूरी है उसे करता है। पहले, वह तुम्हारे लिए एक परिवार चुनता है; उस परिवार की पृष्ठभूमि किस प्रकार की है, तुम्हारे माता पिता कौन हैं, तुम्हारे पूर्वज कौन हैं-यह सब पहले से ही परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया गया था। दूसरे शब्दों में, ये उस पल के फैसलों की प्रेरणा नहीं थे जिन्हें उसके द्वारा लिया गया था, परन्तु इसके बजाए यह ऐसा कार्य था जिसे लम्बे समय पहले शुरू किया था। जब एक बार परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिवार का चुनाव करता है, तो वह उस तिथि को भी चुनता है जिसमें तुम्हारा जन्म होता है। वर्तमान में, जब तुम रोते हुए इस संसार में जन्म लेते हो तो परमेश्वर देखता है, तुम्हारे जन्म को देखता है, तुम्हें देखता है जब तुम अपने पहले वचनों को बोलते हो, तुम्हें देखता है जब तुम लड़खड़ाते हो और अपने पहले कदमों को उठाते हो, और सीखते हो कि कैसे चलना है। पहले तुम एक कदम लेते हो फिर दूसरा कदम लेते हो ... अब तुम दौड़ सकते हो, अब तुम कूद सकते हो, अब तुम बातचीत कर सकते हो, अब तुम अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकते हो। इस समय के दौरान, जब मनुष्य बड़ा होने लगता है, शैतान की नज़रें उनमें से प्रत्येक पर जम जाती हैं, जैसे कोई बाघ अपने शिकार को देख रहा हो। परन्तु अपने कार्य को करने में, परमेश्वर कभी भी मनुष्य, घटनाओं या चीज़ों, अन्तराल या समय की सीमाओं से पीड़ित नहीं हुआ है; वह उसे करता है जिसे उसे करना चाहिए और उसे करता जिसे उसे आवश्य करना चाहिए। बड़े होने की प्रक्रिया में, हो सकता है कि तुम कई चीज़ों का सामना करो जो तुम्हें पसन्द न आएँ, और बीमारियों एवं तनावों का सामना करो। परन्तु जैसे-जैसे तुम इस मार्ग पर चलते हो तुम्हारा जीवन एवं तुम्हारा भविष्य सख्ती से परमेश्वर की देखरेख के अधीन होता है। तुम्हारे सम्पूर्ण जीवन में बने रहने के लिए परमेश्वर तुम्हें एक विशुद्ध गारंटी देता है, क्योंकि वह बिलकुल तुम्हारे बगल में ही है, तुम्हारी रक्षा करता है और तुम्हारी देखभाल करता है। इस बात से अनजान, तुम बढ़ते जाते हो। तुम नई नई बातों के सम्पर्क में आने लगते हो और इस संसार को और इस मानवजाति को जानना प्रारम्भ करते हो। तुम्हारे लिए हर एक चीज़ ताज़ा एवं नया होता है। तुम अपने कार्य को करना पसन्द करते हो और तुम उसे करना पसन्द करते हो जो तुमको अच्छा लगता है। तुम अपनी स्वयं की मानवता के भीतर रहते हो, तुम अपने स्वयं के जीवन के दायरे में भीतर जीते हो, और तुम्हारे पास परमेश्वर के अस्तित्व के विषय में जरा सी भी अनुभूति नहीं होती है। परन्तु जैसे जैसे तुम बड़े होते जाते हैं परमेश्वर मार्ग के हर कदम पर तुम्हें देखता है, और तुम्हें देखता है जब तुम आगे की ओर हर कदम उठाते हो। यहाँ तक कि जब तुम ज्ञान अर्जित करते हो, या विज्ञान की पढ़ाई करते हो, किसी भी कदम पर परमेश्वर ने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा है। इस मामले में तुम भी अन्य लोगों के ही समान हो, इस संसार को जानने और उसके साथ सम्पर्क में आने के पथक्रम में, तुमने अपने स्वयं के आदर्शों को स्थापित कर लिया है, तुम्हारे पास तुम्हारे स्वयं के शौक, तुम्हारी स्वयं की रूचियाँ हैं, और साथ ही तुम ऊँची महत्वाकांक्षाओं को भी आश्रय देते हैं। तुम अकसर अपने स्वयं के भविष्य पर विचार करते हो, अकसर रूपरेखा खींचते हो कि तुम्हारे भविष्य को कैसा दिखना चाहिए। परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मार्ग पर क्या होता है, क्योंकि परमेश्वर साफ आँखों से सब कुछ देखता है। हो सकता है कि तुम अपने स्वयं के अतीत को भूल गए हो, परन्तु परमेश्वर के लिए, ऐसा कोई नहीं है जो उससे बेहतर तुम्हें समझ सकता है। तुम परमेश्वर की दृष्टि में जीवन बिताते हो, बढ़ते हो, और परिपक्व होते हो। … जब तुम्हारा जन्म हुआ उस समय से लेकर अब तक, परमेश्वर ने तुम में बहुत सारे कार्यों को सम्पन्न किया है, परन्तु हर बार जब भी उसने कुछ किया तो उसने तुम्हें नहीं बताया। तुम्हें नहीं जानना था, अतः तुम्हें नहीं बताया गया था, ठीक है? (हाँ।) मनुष्य के लिए, हर चीज़ जो परमेश्वर करता है वह महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के लिए, यह ऐसी चीज़ है जिसे उसे करना ही होगा। परन्तु उसके हृदय में कोई महत्वपूर्ण चीज़ है जिसे उसे करने की आवश्यकता है जो इन चीज़ों से कहीं बढ़कर है। वह क्या है? अर्थात्, जब मनुष्य पैदा हुआ था उस समय से लेकर अब तक, परमेश्वर को उनमें से प्रत्येक की सुरक्षा की गारंटी देनी होगी। हो सकता है कि तुम लोग ऐसा महसूस करो मानो तुम लोगों ने पूरी तरह से नहीं समझा है, यह कहते हुए, "क्या यह सुरक्षा इतनी महत्वपूर्ण है?" अतः "सुरक्षा" का शाब्दिक अर्थ क्या है? हो सकता है कि तुम लोग इसे इस अभिप्राय से समझते हो कि यह शांति है या हो सकता है कि तुम लोग इसे इस अभिप्राय से समझते हो कि कभी विपत्ति या आपदा का अनुभव न करना, अच्छे से जीवन बिताना, एक सामान्य जीवन बिताना। परन्तु अपने हृदय में तुम लोगों को जानना होगा कि यह उतना आसान नहीं है। अतः पृथ्वी पर यह क्या चीज़ है जिसके विषय में मैं बात करता रहा हूँ, जिसे परमेश्वर को करना है? परमेश्वर के लिए इसका क्या अर्थ है? क्या यह वास्तव में तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी है? ठीक इसी वक्त के समान? नहीं। अतः वह क्या है जो परमेश्वर करता है? इस सुरक्षा का अर्थ यह है कि तुम्हें शैतान के द्वारा फाड़ कर खाया नहीं जा रहा है। क्या यह महत्वपूर्ण है? तुम्हें शैतान के द्वारा फाड़ कर खाया नहीं जा रहा है, अतः क्या यह तुमकी सुरक्षा से सम्बन्धित है, या नहीं? यह वास्तव में तुम्हारी व्यक्तिगत सुरक्षा से सम्बन्धित है, और इससे अधिक महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं हो सकता है। जब एक बार तुम्हें शैतान के द्वारा फाड़ खाया (नष्ट किया) जाता है, तब न तो तुम्हारी आत्मा और न ही तुम्हारा शरीर आगे से परमेश्वर का है। परमेश्वर तुम्हें अब आगे से नहीं बचाएगा। परमेश्वर ऐसी आत्माओं को छोड़ देता है और ऐसे लोगों को छोड़ देता है। अतः मैं कहता हूँ कि सबसे महत्वपूर्ण कार्य जिसे परमेश्वर को करना है वह तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी देना है, यह गारंटी देना कि तुम्हें शैतान के द्वारा फाड़ कर खाया नहीं जाएगा। यह अति महत्वपूर्ण है, है कि नहीं? अतः तुम लोग उत्तर क्यों नहीं दे सकते हो? ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग परमेश्वर की महान दया को महसूस नहीं कर सकते हो!
परमेश्वर मनुष्य को सुरक्षा की गारंटी देने, और यह गारंटी देने के अतिरिक्त बहुत कुछ करता है कि उन्हें शैतान के द्वारा फाड़ कर खाया नहीं जाएगा; वह किसी को चुनने और उनको बचाने की तैयारी में बहुत सारे कार्य करता है। पहला, तुम्हारे पास किस प्रकार का चरित्र है, किस प्रकार के परिवार में तुम पैदा होगे, तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम्हारे कितने भाई और बहन हैं, तुम्हारे परिवार की स्थिति एवं आर्थिक दशा क्या है, तुम्हारे परिवार की याँस्थितियाँ क्या हैं-परमेश्वर के द्वारा तुम्हारे लिए इन सब का प्रबंध कड़ी मेहनत से किया जाता है। … बाहरी तौर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर ने मनुष्य के लिए ऐसा कुछ नहीं किया है जो पृथ्वी को हिला दे; वह बस सब-कुछ गुप्त रीति से, विनम्रता से और खामोशी से करता है। परन्तु वास्तव में, वह सब जो परमेश्वर करता है तुम्हारे उद्धार हेतु एक नींव डालने के लिए, आगे के मार्ग को तैयार करने के लिए और तुम्हारे उद्धार के लिए सभी आवश्यक स्थितियों को तैयार करने के लिए करता है। तत्काल ही प्रत्येक व्यक्ति के निर्दिष्ट समय पर, परमेश्वर उन्हें वापस अपने सामने लाता है-जब परमेश्वर की आवाज़ सुनने के लिए तुम्हारा समय आता है, तब यह वह समय होता है जब तुम उसके सामने आते हो। उस समय जब यह घटित होता है, कुछ लोग तो पहले ही स्वयं माता-पिता बन चुके होते हैं, जबकि अन्य लोग तो सिर्फ किसी के बच्चे होते हैं। दूसरे शब्दों में, कुछ लोगों ने विवाह कर लिया होता है और उनके बच्चे हो जाते हैं जबकि अन्य लोग अभी भी अकेले ही होते हैं, उन्होंने अभी तक अपने परिवार शुरू नहीं किये होते हैं। परन्तु लोगों की स्थितियों की परवाह किए बगैर, परमेश्वर ने पहले से ही समय को निर्धारित कर दिया है जब तुम्हें चुना जाएगा और जब उसका सुसमाचार और वचन तुम तक पहुँचेगा। परमेश्वर ने परिस्थितियों को निर्धारित किया है, किसी व्यक्ति या किसी सन्दर्भ को निर्धारित किया है जिसके माध्यम से तुम तक सुसमाचार पहुँचाया जाएगा, ताकि तुम परमेश्वर के वचन को सुन सको। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पहले से ही सभी आवश्यक परिस्थितियों को तैयार कर लिया है ताकि, अनजाने में, तुम उसके सामने आ जाओ और परमेश्वर के परिवार में वापस लौट जाओ। तुम भी अनजाने में परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसके कदम दर कदम कार्य में प्रवेश करते हो, परमेश्वर के कार्य करने के तरीके में प्रवेश करते हो जिसे उसने तुम्हारे लिए कदम दर कदम तैयार किया है। … परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कौन-सा कारण तुम्हारे अंदर उसके प्रति विश्वास पैदा करता है, इन सबका प्रबंध एवं मार्गदर्शन वास्तव में बिना किसी सन्देह के परमेश्वर के द्वारा किया जाता है।
पहले तो परमेश्वर ने तुम्हें चुनने के लिए और तुम्हें अपने परिवार में लाने के लिए विभिन्न तरीकों का प्रयोग किया। यह पहला कार्य है जिसे वह करता है और यह एक अनुग्रह है जिसे वह हर एक व्यक्ति को देता है। अब अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य के साथ, वह मनुष्य को सिर्फ अनुग्रह एवं आशीषें ही नहीं देता है जैसा उसने शुरुआत में किया था, न ही वह लोगों को आगे बढ़ने के लिए फुसलाता है—यह अनुग्रह के युग में कार्य की उस नींव के कारण है। इन अंत के दिनों के कार्य के दौरान, परमेश्वर के कार्य के सभी पहलुओं से मनुष्य ने क्या देखा जिन्हें उन्होंने अनुभव किया है? उन्होंने न केवल परमेश्वर के प्रेम को देखा है, बल्कि परमेश्वर के न्याय एवं ताड़ना को भी देखा है। इस समय, परमेश्वर मनुष्य को और अधिक प्रदान करता है, सहारा देता है, और मनुष्य को प्रकाशन एवं मार्गदर्शन देता है, जिससे वे धीरे-धीरे उसके इरादों को जानने लगें, उन वचनों को जानने लगें जिन्हें वह बोलता है और उस सच्चाई को जानने लगें जिसे वह मनुष्य को प्रदान करता है। जब मनुष्य कमज़ोर होता है, जब वे हतोत्साहित होते हैं, जब उनके पास कहीं और जाने के लिए कोई स्थान नहीं होता है, तब परमेश्वर उन्हें राहत, सलाह, एवं प्रोत्साहन देने के लिए अपने वचनों का उपयोग करेगा, ताकि कम हैसियत वाला मनुष्य धीरे-धीरे अपनी सामर्थ्य को पा सके, सकारात्मकता में खड़ा हो जाए और परमेश्वर के साथ सहयोग करने के लिए तैयार हो जाए। परन्तु जब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करता है या उसका विरोध करता है, या जब वे अपनी स्वयं की भ्रष्टता को प्रगट करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं, तब परमेश्वर उनको ताड़ना देने में और उन्हें अनुशासित करने में कोई दया नहीं दिखाएगा। फिर भी, मनुष्य की मूर्खता, अज्ञानता, दुर्बलता, एवं अपरिपक्वता के प्रति परमेश्वर सहिष्णुता एवं धैर्य दिखाएगा। इस रीति से, उस समस्त कार्य के माध्यम से जिसे परमेश्वर मनुष्य के लिए करता है, मनुष्य धीरे-धीरे परिपक्व होता है, बढ़ता है, और परमेश्वर के इरादों को जानने लगता है, कुछ सच्चाई जानने लगता है, सकारात्मक चीज़ें क्या हैं और नकारात्मक चीज़ें क्या हैं, उनको जानने लगता है, और यह जानने लगता है कि बुराई क्या है और अंधकार क्या है। परमेश्वर हमेशा मनुष्य को प्रताड़ित एवं अनुशासित नहीं करता रहता है, न ही वह हमेशा सहिष्णुता एवं धैर्य दिखाता है। बल्कि उनकी विभिन्न अवस्थाओं में और उनके अलग-अलग हैसियत एवं क्षमता के अनुसार वह विभिन्न तरीकों से प्रत्येक व्यक्ति के लिए आपूर्ति करता है। वह मनुष्य के लिए अनेक कार्य करता है और बड़ी कीमत पर करता है; मनुष्य इस कीमत के विषय में या इन कार्यों के विषय में जिन्हें परमेश्वर करता है कुछ भी एहसास नहीं करता है, फिर भी वह जो कुछ करता है उसे वास्तविकता में हर एक व्यक्ति के लिये सम्पन्न किया जाता है। परमेश्वर का प्रेम सच्चा हैः परमेश्वर के अनुग्रह के माध्यम से मनुष्य एक के बाद एक आपदा को टालता है, जबकि मनुष्य की दुर्बलता के लिए, परमेश्वर समय-समय पर अपनी सहिष्णुता दिखाता है। परमेश्वर का न्याय एवं ताड़ना लोगों को मानवजाति की भ्रष्टता और उनके भ्रष्ट शैतानी सार को धीरे-धीरे जानने की अनुमति देते हैं। जो कुछ परमेश्वर प्रदान करता है, मनुष्य के लिए उसका प्रकाशन एवं उसका मार्गदर्शन वे सब मानवजाति को अनुमति देते हैं कि वे सत्य के सार को और भी अधिक जानें, और लगातार यह जानें कि लोगों की क्या आवश्यकता है, उन्हें कौन-सा मार्ग लेना चाहिए, उन्हें किसके लिए जीना है, उनकी ज़िंदगी का मूल्य एवं अर्थ क्या है, और आगे के मार्ग पर कैसे चलना है। ये सभी कार्य जिन्हें परमेश्वर करता है वे उसके एकमात्र मूल उद्देश्य से अभिन्न हैं। तो यह उद्देश्य क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? परमेश्वर मनुष्य पर अपने कार्य को क्रियान्वित करने के लिए इन तरीकों का उपयोग क्यों करता है? वह क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है? दूसरे शब्दों में, वह मनुष्य में क्या देखना चाहता है और उनसे क्या प्राप्त करना चाहता है? जो कुछ परमेश्वर देखना चाहता है वह यह है कि मनुष्य के हृदय को पुनर्जीवित किया जा सके। दूसरे शब्दों में, ये तरीके जिन्हें वह मनुष्य में कार्य करने के लिए उपयोग करता है वे मनुष्य के हृदय को निरन्तर जागृत करने के लिए हैं, मनुष्य के आत्मा को जागृत करने के लिए हैं, मनुष्य को यह जानने के लिए हैं कि वे कहाँ से आए हैं, कौन उन्हें मार्गदर्शन दे रहा है, उनकी सहायता कर रहा है, उनके लिए आपूर्ति कर रहा है, और किसकी बदौलत मनुष्य अब तक जीवित है; वे मनुष्य को यह जानने देने के लिए हैं कि सृष्टिकर्ता कौन है, उन्हें किसकी आराधना करनी चाहिए, उन्हें किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, और मनुष्य को किस रीति से परमेश्वर के सामने आना चाहिए; मनुष्य के हृदय को धीरे-धीरे पुनर्जीवित करने के लिए उनका उपयोग किया जाता है, इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के हृदय को जान पाता है, परमेश्वर के हृदय को समझ पाता है, और मनुष्य को बचाने के लिए उसके कार्य के पीछे की बड़ी देखभाल एवं विचार को समझ पाता है। जब मनुष्य के हृदय को पुनर्जीवित किया जाता है, तब वे आगे से एक पतित एवं भ्रष्ट स्वभाव के जीवन को जीने की इच्छा नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर की संतुष्टि के लिये सत्य की खोज करने की इच्छा करते हैं। जब मनुष्य के हृदय को जागृत कर दिया जाता है, तो वे शैतान के साथ स्थायी रूप से सम्बन्ध तोड़ने में सक्षम हो जाते हैं, शैतान उन्हेंअब आगे से कोई हानि नहीं पहुँचा पाता है, उन्हें अब आगे से नियंत्रित नहीं कर पाता या मूर्ख नहीं बना पाता है। बल्कि, मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के कार्य में और उसके वचन में सकारात्मक रूप से सहयोग कर सकता है, इस प्रकार परमेश्वर के भय को प्राप्त करता है और बुराई से दूर रहता है। यह परमेश्वर के कार्य का मूल उद्देश्य है।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "स्वयं परमेश्वर, अद्वितीय VI" से
कई हज़ार साल बीत गए हैं, और अभी भी मनुष्य परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए उजियाले और वायु का आनन्द उठाता है, स्वयं परमेश्वर के द्वारा फूँके गए श्वास के द्वारा साँस लेता है, अभी भी परमेश्वर के द्वारा सृजे गए फूलों, पक्षियों, मछलियों और कीड़े मकौड़ों का आनन्द उठाता है, और परमेश्वर के द्वारा प्रदान की गई सभी चीज़ों का मज़ा लेता है; दिन और रात अभी भी लगातार एक दूसरे का स्थान ले रहे हैं; चार ऋतुएँ हमेशा की तरह आपस में बदल रही हैं; आसमान में उड़नेवाले कालहँस इस शीत ऋतु मे उड़ जाएँगे, और अगले बसंत में फिर वापस भी आएँगे; जल की मछलियाँ नदियों और झीलों को - जो उनका घर है कभी भी नहीं छोड़ती हैं, ज़मीन के कीटपतिंगे (शलभ) गर्मी के दिनों में अपना दिल खोलकर गाते हैं; घास के झींगुर शरद ऋतु के दौरान हवा के साथ समय समय पर धीमे स्वर में गुनगुनाते हैं; कालहंस समूहों में इकट्ठे हो जाते हैं, जबकि बाज एकान्त में अकेले ही रहते हैं, शेरों के कुनबे शिकार करने के द्वारा अपने आपको बनाए रखते हैं; बत्तखें घास और फूलों से दूर नहीं जाते… सभी चीज़ों के मध्य हर प्रकार के जीवधारी चले जाते हैं फिर आते हैं, और फिर चले जाते हैं, पलक झपकते ही लाखों परिवर्तन होते हैं - परन्तु जो बदलता नहीं है वह है उनका सहज ज्ञान और जिन्दा रहने के नियम। वे परमेश्वर के प्रयोजन और परमेश्वर के पालन पोषण के अधीन जीते हैं, और कोई उनके सहज ज्ञान को बदल नहीं सकता है, और न ही कोई उनके ज़िन्दा रहने के नियमों में बाधा डाल सकता है। यद्यपि मानवजाति को, जो सभी चीज़ों के बीच में जीवन बिताता है, शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, फिर भी मनुष्य परमेश्वर के द्वारा बनाए गए जल, परमेश्वर द्वारा बनाई गई वायु, परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीज़ों को ग्रहण न करने का निर्णय नहीं ले सकता है, और मनुष्य फिर भी जीवित रहता है और परमेश्वर द्वारा बनाए गए इस समयकाल में बढ़ता रहता है। मनुष्य का अन्तःज्ञान नहीं बदला है। मनुष्य अभी भी देखने के लिए आँखों पर, सुनने के लिए कानों पर, सोचने के लिए अपने मस्तिष्क पर, समझने के लिए अपने हृदय पर, चलने के लिए अपने पैरों पर, काम करने के लिए अपने हाथों, और इत्यादि पर निर्भर है; परमेश्वर ने सब प्रकार का सहज ज्ञान मनुष्य को दिया है जिससे वह इस बात को स्वीकार कर सके कि परमेश्वर का प्रयोजन अपरिवर्तनीय बना रहता है, वे योग्यताएँ जिनके द्वारा मनुष्य परमेश्वर के साथ सहयोग करता है कभी भी नहीं बदली हैं, एक सृजे गए प्राणी का कर्तव्य निभाने की मानवजाति की योयग्यता नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता के द्वारा उद्धार पाने हेतु मानवजाति की लालसा नहीं बदली है। अपनी उत्पत्ति का पता लगाने की मानवजाति की इच्छा नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता द्वारा बचाए जाने की मानवजाति की इच्छा नहीं बदली है। मनुष्य की वर्तमान परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं, जो परमेश्वर के अधिकार के अधीन रहता है, और जिसने शैतान के द्वारा किए गए रक्तरंजित विध्वंस को सहा है। यद्यपि मानवजाति शैतान के अत्याचार की आधीनता में आ गयी थी, और वे अब सृष्टि के प्रारम्भ के आदम और हव्वा नहीं थे, और ऐसी चीज़ों से भरपूर होने के बावजूद भी जो परमेश्वर के विरूद्ध हैं, जैसे ज्ञान, कल्पनाएँ, विचार, और इत्यादि, और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से भरपूर होने के बावजूद भी, परमेश्वर की दृष्टि में मानवजाति अभी भी वही मानवजाति थी जिसे उसने सृजा था। परमेश्वर के द्वारा अभी भी मानवजाति पर शासन किया जाता है और जटिलता से उसका प्रबन्ध किया जाता है, और परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित पथक्रम के अनुसार वह अभी भी जीवन बिताती है, और इस प्रकार परमेश्वर की दृष्टि में, मानवजाति, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, वह महज गड़गड़ाहट करनेवाले पेट के साथ, ऐसी प्रतिक्रियाओं के साथ जो थोड़ी धीमी हैं, और ऐसी यादों के साथ जो इतनी अच्छी नहीं हैं जितना वे हुआ करती थीं, और थोड़े अधिक उम्र के साथ तनाव में घिरी हुई है - परन्तु मनुष्य के सारे कार्य और सहज ज्ञान पूरी तरह सुरक्षित है। यह वह मानवजाति है जिसे परमेश्वर बचाने की इच्छा करता था। इस मानवजाति को और कुछ नहीं बस सृष्टिकर्ता की बुलाहट को सुनना है, और सृष्टिकर्ता की आवाज़ को सुनना है, और वह खड़ी होगी और इस आवाज़ की स्थिति के स्रोत का पता लगाने के लिए फुर्ती करेगी। इस मानवजाति को और कुछ नहीं बस सृष्टिकर्ता के रूप को देखना है और वह अन्य सभी चीज़ों की परवाह नहीं करेगी, और सब कुछ छोड़ देगी, जिस से अपने आप को परमेश्वर के प्रति समर्पित कर सके, और अपने जीवन को भी उसके लिए दे देगी। जब मानवजाति का हृदय सृष्टिकर्ता के हृदय में महसूस किए गए वचनों को समझेगा, तो मानवजाति शैतान को ठुकराकर और सृष्टिकर्ता की ओर आ जाएगी; जब मानवजाति अपने शरीर से गन्दगी को पूरी तरह धो देगी, और एक बार फिर से सृष्टिकर्ता के प्रयोजन और पालन पोषण को प्राप्त करेगी, तब मानवजाति की स्मरण शक्ति पुनः वापस आ जाएगी, और इस समय मानवजाति सचमुच में सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में वापस आ चुकी होगी।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I" से

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