2019/03/01

11. अपने कर्तव्य को करने और सेवा करने में क्या अंतर है?

11. अपने कर्तव्य को करने और सेवा करने में क्या अंतर है?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
मनुष्य का अपना कर्तव्य निभाना, वास्तव में, उस सबका निष्पादन है जो मनुष्य के भीतर अन्तर्निहित है, अर्थात्, जो मनुष्य के लिए संभव है, उसका निष्पादन है। यह इसके बाद ही है कि उसका कर्तव्य पूरा होता है। मनुष्य की सेवा के दौरान मनुष्य के दोष उसके प्रगतिशील अनुभवों और न्याय के अनुभव की उसकी प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा हैं या प्रभाव नहीं डालते हैं। … मनुष्य के कर्तव्य और क्या वह धन्य या श्रापित है के बीच कोई सह-सम्बन्ध नहीं है। कर्तव्य वह है जो मनुष्य को पूरा करना चाहिए; यह उसका आवश्यक कर्तव्य है और प्रतिफल, परिस्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह कर्तव्य कर रहा है। ऐसा मनुष्य जिसे धन्य किया जाता है वह न्याय के बाद सिद्ध बनाए जाने पर भलाई का आनन्द लेता है। ऐसा मनुष्य जिसे श्रापित किया जाता है तब दण्ड प्राप्त करता है जब ताड़ना और न्याय के बाद उसका स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, अर्थात्, उसे सिद्ध नहीं बनाया गया है। एक सृजन किए गए प्राणी के रूप में, मनुष्य को, इस बात की परवाह किए बिना कि क्या उसे धन्य या श्रापित किया जाएगा, अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए, वह करना चाहिए जो उसे करना चाहिए, और वह करना चाहिए जो वह करने के योग्य है। यही किसी ऐसे मनुष्य के लिए सबसे आधारभूत शर्त है, जो परमेश्वर की तलाश करता है। तुम्हें केवल धन्य होने के लिए अपने कर्तव्य को नहीं करना चाहिए, और श्रापित होने के भय से अपना कृत्य करने से इनकार नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को एक बात बता दूँ: यदि मनुष्य अपना कार्य करने में समर्थ है, तो इसका अर्थ है कि वह उसे करता है जो उसे करना चाहिए। यदि मनुष्य अपना कर्तव्य करने में असमर्थ है, तो यह मनुष्य की विद्रोहशीलता को दर्शाता है। यह सदैव उसके कर्तव्य को करने की प्रक्रिया के माध्यम से है कि मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और यह इसी प्रक्रिया के माध्यम से है कि वह अपनी वफादारी प्रदर्शित करता है। वैसे तो, तुम जितना अधिक अपना कार्य करने में समर्थ होगे, तुम उतने ही अधिक सत्य प्राप्त करोगे, और तुम्हारी अभिव्यक्ति भी उतनी ही अधिक वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपने कर्तव्य को बिना रुचि के करते हैं और सत्य की तलाश नहीं करते हैं वे अन्त में हटा दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपने कर्तव्य को नहीं करते हैं, और अपने कर्तव्य को पूरा करने में सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। ऐसे लोग वे हैं जो अपरिवर्तित रहते हैं और श्रापित किए जाएँगे। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो व्यक्त करते हैं वह भी कुछ नहीं बल्कि दुष्टता ही होती है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से
पतरस को व्यवहार एवं शुद्धीकरण के माध्यम से सिद्ध किया गया था। उसने कहा था, "मुझे हर समय परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करना होगा। वह सब जो मैं करता हूँ उसमें मैं केवल परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करता हूँ, और चाहे मुझे ताड़ना मिले, या मेरा न्याय किया जाए, मैं अभी भी ऐसा करके प्रसन्न हूँ।" पतरस ने अपना सब कुछ परमेश्वर को दे दिया, एवं अपना काम, अपने वचन, और सम्पूर्ण जीवन परमेश्वर के प्रेम के खातिर दे दिया। वह ऐसा व्यक्ति था जो पवित्रता की खोज करता था, और जितना अधिक उसने अनुभव किया, उसके हृदय की गहराई के भीतर परमेश्वर के लिए उसका प्रेम उतना ही महान था। इसी बीच पौलुस ने सिर्फ बाहरी कार्य किया था, और यद्यपि उसने कड़ी मेहनत भी की थी, फिर भी उसका परिश्रम उसके कार्य को उचित रीति से करने के लिए और इस प्रकार एक प्रतिफल पाने के लिए था। अगर वह जानता कि उसे कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा, तो उसने अपने काम को छोड़ दिया होता। जिस चीज़ की पतरस परवाह करता था वह उसके हृदय के भीतर का सच्चा प्रेम था, और उस चीज़ की परवाह करता था जो व्यावहारिक था और जिसे हासिल किया जा सकता था। उसने इस बात की परवाह नहीं की कि उसे प्रतिफल मिलेगा या नहीं, किन्तु इस बात के विषय में परवाह की कि उसके स्वभाव को बदला जा सकता है या नहीं। पौलुस ने हमेशा और कड़ी मेहनत करने के विषय में परवाह की थी, उसने बाहरी कार्य एवं समर्पण, और उन सिद्धान्तों के विषय में परवाह की थी जिन्हें साधारण लोगों के द्वारा अनुभव नहीं जा सकता था। वह अपने भीतर बदलावों और परमेश्वर के सच्चे प्रेम की परवाह नहीं करता था। पतरस के अनुभव सच्चे प्रेम एवं सच्चे ज्ञान को हासिल करने के लिए थे। उसके अनुभव परमेश्वर से एक करीबी सम्बन्ध को पाने के लिए थे, और एक व्यावहारिक जीवन को जीने के लिए था। पौलुस का कार्य यीशु के द्वारा सौंपे गए उस कार्य के कारण था, और उन चीज़ों को प्राप्त करने के लिए था जिनकी वह लालसा करता था, फिर भी ये चीज़ें स्वयं एवं परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान से सम्बन्धित नहीं थीं। उसका कार्य मात्र ताड़ना एवं न्याय से बचने के लिए था। जिस चीज़ की पतरस ने खोज की थी वह शुद्ध प्रेम था, और जिस चीज़ की पौलुस ने खोज की थी वह धार्मिकता का मुकुट था। पतरस ने पवित्र आत्मा के कार्य के कई वर्षों का अनुभव किया था, और उसके पास मसीह का एक व्यावहारिक ज्ञान, साथ ही साथ स्वयं का गंभीर ज्ञान था। और इस प्रकार, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम शुद्ध था। कई वर्षों के शुद्धीकरण ने यीशु एवं जीवन के विषय में उसके ज्ञान को उन्नत किया था, और उसका प्रेम शर्तरहित प्रेम था, और यह स्वतः ही उमड़ने वाला प्रेम था, और उसने बदले में कुछ नहीं मांगा था, न ही उसने किसी लाभ की आशा की थी। पौलुस ने कई वर्षों तक काम किया था, फिर भी उसने मसीह के महान ज्ञान को धारण नहीं किया था, और स्वयं के विषय में उसका ज्ञान भी दयनीय रूप से थोड़ा सा था। उसके पास मसीह के लिए कोई प्रेम ही नहीं था, और उसका कार्य और वह पथक्रम जिस पर वह दौड़ता था वह अंतिम कीर्ति पाने के लिए था। जिस चीज़ की उसने खोज की थी वह अति उत्तम मुकुट था, विशुद्ध प्रेम नहीं। उसने सक्रिय रूप से खोज नहीं की थी, परन्तु निष्क्रिय रूप से ऐसा किया था; वह अपने कर्तव्य को नहीं निभा रहा था, परन्तु पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा कब्ज़ा किए जाने के पश्चात् उसे अपने अनुसरण में बाध्य किया गया था। और इस प्रकार, उसका अनुसरण यह साबित नहीं करता है कि वह परमेश्वर का एक योग्य प्राणी था; वह पतरस था जो परमेश्वर का एक योग्य प्राणी था जिसने अपने कर्तव्य को निभाया था। …
… पौलुस का कार्य कलीसियाओं के प्रयोजन, एवं कलीसियाओं की सहायता से सम्बन्धित था। जो कुछ पतरस ने अनुभव किया था वे उसके जीवन स्वभाव में हुए परिवर्तन थे; उसने परमेश्वर के प्रेम का अनुभव किया था। अब जबकि तू उनके सार के अन्तर को जानता है, तो तू देख सकता है कि कौन, अन्ततः, सचमुच में परमेश्वर पर विश्वास करता था, और कौन वाकई में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता था। उनमें से एक सचमुच में परमेश्वर से प्रेम करता था, और दूसरा वाकई में परमेश्वर से प्रेम नहीं करता था; एक अपने स्वभाव में परिवर्तनों से होकर गुज़रा था, और दूसरा नहीं; एक की लोगों के द्वारा अत्यंत प्रशंसा की गई थी, और वह बड़े शख्सियत का था, और दूसरे ने विनम्रतापूर्वक सेवा की थी, और उस पर लोगों के द्वारा आसानी से ध्यान नहीं दिया गया था; एक ने पवित्रता की खोज की थी, और दूसरे ने नहीं, और हालाँकि वह अशुद्ध नहीं था, फिर भी वह शुद्ध प्रेम को धारण किए हुए नहीं था; एक सच्ची मानवता को धारण किए हुए था, और दूसरा नहीं; एक परमेश्वर के एक प्राणी के एहसास को धारण किए हुए था, और दूसरा नहीं। पतरस एवं पौलुस के सार में भिन्नताएं ऐसी ही हैं। वह पथ जिस पर पतरस चला था वह सफलता का पथ था, जो सामान्य मानवता की पुनः प्राप्ति एवं परमेश्वर के प्राणी के कर्तव्य को हासिल करने का भी पथ है। पतरस उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो सफल हैं। वह पथ जिस पर पौलुस के द्वारा चला गया था वह असफलता का पथ है, और वह उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो ऊपरी तौर पर स्वयं को समर्पित एवं खर्च करते हैं, और विशुद्ध रूप से परमेश्वर से प्रेम नहीं करते हैं। पौलुस उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो सत्य को धारण नहीं करते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से

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